वाल्मीकि रामायण प्रेरणादायक श्लोक अर्थ सहित
यदाचरित कल्याणि ! शुभं वा यदि वाऽशुभम् ।
तदेव लभते भद्रे! कर्त्ता कर्मजमात्मनः ॥
मनुष्य जैसा भी अच्छा या बुरा कर्म करता है, उसे वैसा ही फल मिलता है । कर्त्ता को अपने कर्म का फल अवश्य भोगना पड़ता है ।
सुदुखं शयितः पूर्वं प्राप्येदं सुखमुत्तमम् ।
प्राप्तकालं न जानीते विश्वामित्रो यथा मुनिः ॥
किसी को जब बहुत दिनों तक अत्यधिक दुःख भोगने के बाद महान सुख मिलता है तो उसे विश्वामित्र मुनि की भांति समय का ज्ञान नहीं रहता – सुख का अधिक समय भी थोड़ा ही जान पड़ता है ।
निरुत्साहस्य दीनस्य शोकपर्याकुलात्मनः ।
सर्वार्था व्यवसीदन्ति व्यसनं चाधिगच्छति ॥
उत्साह हीन, दीन और शोकाकुल मनुष्य के सभी काम बिगड़ जाते हैं , वह घोर विपत्ति में फंस जाता है ।
गुणगान् व परजनः स्वजनो निर्गुणोऽपि वा ।
निर्गणः स्वजनः श्रेयान् यः परः पर एव सः ॥
पराया मनुष्य भले ही गुणवान् हो तथा स्वजन सर्वथा गुणहीन ही क्यों न हो, लेकिन गुणी परजन से गुणहीन स्वजन ही भला होता है । अपना तो अपना है और पराया पराया ही रहता है।
धर्मादर्थः प्रभवति धर्मात्प्रभवते सुखम् ।
धर्मण लभते सर्वं धर्मप्रसारमिदं जगत् ॥
धर्म से ही धन, सुख तथा सब कुछ प्राप्त होता है । इस संसार में धर्म ही सार वस्तु है ।
सत्यमेवेश्वरो लोके सत्ये धर्मः सदाश्रितः ।
सत्यमूलनि सर्वाणि सत्यान्नास्ति परं पदम् ॥
सत्य ही संसार में ईश्वर है; धर्म भी सत्य के ही आश्रित है; सत्य ही समस्त भव – विभव का मूल है; सत्य से बढ़कर और कुछ नहीं है ।
उत्साहो बलवानार्य नास्त्युत्साहात्परं बलम् ।
सोत्साहस्य हि लोकेषु न किञ्चदपि दुर्लभम् ॥
उत्साह बड़ा बलवान होता है; उत्साह से बढ़कर कोई बल नहीं है । उत्साही पुरुष के लिए संसार में कुछ भी दुर्लभ नहीं है ।
वाच्यावाच्यं प्रकुपितो न विजानाति कर्हिचित् ।
नाकार्यमस्ति क्रुद्धस्य नवाच्यं विद्यते क्वचित् ॥
क्रोध की दशा में मनुष्य को कहने और न कहने योग्य बातों का विवेक नहीं रहता । क्रुद्ध मनुष्य कुछ भी कह सकता है और कुछ भी बक सकता है । उसके लिए कुछ भी अकार्य और अवाच्य नहीं है ।
न सुहृद्यो विपन्नार्था दिनमभ्युपपद्यते ।
स बन्धुर्योअपनीतेषु सहाय्यायोपकल्पते ॥
सुह्रद् वही है जो विपत्तिग्रस्त दीन मित्र का साथ दे और सच्चा बन्धु वही है जो अपने कुमार्गगामी बन्धु का भी सहायता करे ।
आढ् यतो वापि दरिद्रो वा दुःखित सुखितोऽपिवा ।
निर्दोषश्च सदोषश्च व्यस्यः परमा गतिः ॥
चाहे धनी हो या निर्धन, दुःखी हो या सुखी, निर्दोष हो या सदोष – मित्र ही मनुष्य का सबसे बड़ा सहारा होता है ।
वसेत्सह सपत्नेन क्रुद्धेनाशुविषेण च ।
न तू मित्रप्रवादेन संवसेच्छत्रु सेविना ॥
शत्रु और क्रुद्ध महाविषधर सर्प के साथ भले ही रहें, पर ऐसे मनुष्य के साथ कभी न रहे जो ऊपर से तो मित्र कहलाता है, लेकिन भीतर-भीतर शत्रु का हितसाधक हो ।
न चातिप्रणयः कार्यः कर्त्तव्योप्रणयश्च ते ।
उभयं हि महान् दोसस्तस्मादन्तरदृग्भव ॥
मृत्यु-पूर्व बालि ने अपने पुत्र अंगद को यह अन्तिम उपदेश दिया था – तुम किसी से अधिक प्रेम या अधिक वैर न करना, क्योंकि दोनों ही अत्यन्त अनिष्टकारक होते हैं, सदा मध्यम मार्ग का ही अवलम्बन करना ।
Motivational Shlok Valmiki Ramayan
उपकारफलं मित्रमपकारोऽरिलक्षणम् ॥
उपकार करना मित्रता का लक्षण है और अपकार करना शत्रुता का ।
ये शोकमनुवर्त्तन्ते न तेषां विद्यते सुखम् ॥
शोकग्रस्त मनुष्य को कभी सुख नहीं मिलता ।
शोकः शौर्यपकर्षणः ॥
शोक मनुष्य के शौर्य को नष्ट कर देता है ।
सुख-दुर्लभं हि सदा सुखम् ।
सुख सदा नहीं बना रहता है ।
न सुखाल्लभ्यते सुखम् ॥
सुख से सुख की वृद्धि नहीं होती ।
मृदुर्हि परिभूयते ॥
मृदु पुरुष का अनादर होता है ।
सर्वे चण्डस्य विभ्यति ॥
क्रोधी पुरुष से सभी डरते हैं ।
स्वभावो दुरतिक्रमः ॥
स्वभाव का अतिक्रमण कठिन है ।
सर्वथा सुकरं मित्रं दुष्करं प्रतिपालनम् ॥
मित्रता करना सहज है लेकिन उसको निभाना कठिन है ।
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