काश न्यूटन ने कणाद का वैशेषिक दर्शन पढ़ा होता! | Quantum Physics and Vedanta

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सापेक्षता व निरपेक्षता के पश्चिमी दर्शन का परिचय:

19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में ईथर का अस्तित्व तथा उसके गुणधर्म स्थापित करने के अनेक प्रयत्न प्रयोग द्वारा किए गए। अल्बर्ट माइकलसन और एडवर्ड मोर्ले द्वारा 1887 में किया गया प्रयोग किया जिसने पृथ्वी, सूर्य की परिक्रमा ईथर के सापेक्ष जिस गति से करती है उस गति का यथार्थ मापन करना इस प्रयोग का उद्देश्य था। किंतु यह प्रयत्न असफल रहा और प्रयोग के फल से यह अनुमान निकाला गया कि ईथर के सापेक्ष पृथ्वी की गति शून्य है। इसका यह भी अर्थ हुआ कि ईथर की कल्पना असत्य है, अर्थात् ईथर का अस्तित्व ही नहीं है। यदि ईथर ही नहीं है तो निरपेक्ष मानक का भी अस्तित्व नहीं हो सकता।अत: गति केवल सापेक्ष ही हो सकती है और इस तरह न्यूटन के बल बार दंभ भरने वाले यूरोप का समस्त विज्ञान और भौतिकवादी दर्शन घुटने टेक रहा था|

इन प्रयोगों के फलों से केवल भौतिकी में ही नहीं, बल्कि विज्ञान तथा यूरोपीय दर्शन में भी गंभीर अशांति उत्पन्न हुई। 1904 में प्रसिद्ध फ्रेंच गणितज्ञ Jules Henri Poincaré ने आपेक्षिकता का नियम प्रस्तुत किया। इनके अनुसार भौतिकी के नियम ऐसे स्वरूप में व्यक्त होने चाहिए कि वे किसी भी प्रेक्षक (देखनेवाले) के लिए वास्तविक हों।

पश्चिमी संसार का दिक्-काल से परिचय:

इस नियम से दिक् (स्पेस) तथा काल (टाइम) की प्रचलित धारणाओं पर नया प्रकाश पड़ा। परन्तु इस योगदान का श्रेय फ्रेंच गणितज्ञ Jules Henri Poincaré  को न मिलकर सन 1905 में आइंस्टीन के द्वारा अपने एक शोधपत्र ऑन द एलेक्ट्रोडाइनेमिक्स ऑफ् मूविंग बॉडीज में विशेष रूप से दुनिया में रख पाने के कारण अधिक मिला |

वास्तव में इसी विशिष्ट आपेक्षिकता सिद्धांत ने पश्चिम के दर्शन व विज्ञान का द्वार ब्रह्माण्ड के लिए खोला और भौतिकवाद और इन्द्रियवाद पर आधारित यूरोपीय दर्शन तार तार हो गया |

दिक्-काल की अवधारणा:

पश्चिम में दिक्-काल या स्पेस-टाइम (spacetime) की संकल्पना, अल्बर्ट आइंस्टीन द्वारा उनके सापेक्षता के सिद्धांत में दी गई थी| उनके अनुसार तीन दिशाओं की तरह, समय भी एक आयाम है और भौतिकी में इन्हें एक साथ चार आयामों के रूप में देखना चाहिए। उन्होंने कहा कि वास्तव में ब्रह्माण्ड की सभी चीज़ें इस चार-आयामी दिक्-काल में रहती हैं।

हिन्दू दर्शन में इस विषय में पुरातन काल से सोच विचार होता आ रहा है। कणाद (३०० ई. पू.) के वैशेषिक दर्शन में आकाश, दिक्‌ और काल की धारणाएँ सुस्पष्ट दी गई हैं और इनके गुणों का भी वर्णन किया गया है। इंद्रियजन्य अनुभवों से जो ज्ञान मिलता है उसमें दिक्‌ और काल का संबंध अवश्य ही होता है। इस ज्ञान की यदि वास्तविकता समझा जाए तो दिक्‌ और काल वस्तविकता से अलग नहीं हो सकते। प्रत्येक हिन्दू दार्शनिक संप्रदाय ने वस्तविकता, दिक्‌ और काल, इनके परस्पर संबंधों की अपनी अपनी धारणाएँ दी हैं।

इस तरह से यह दिक्-काल कि अवधारणा पुरातन काल से हिन्दू संस्कृति में अनुभवगम्य रही है एवं दिक्-काल की सीमा से परे इन्द्रियातीत संसार के अनुभव को ही मोक्ष अथवा कैवल्य कि प्राप्ति का द्योतक माना है|

आइये भारतीय दर्शन से उद्भूत “दिक् (Space)” को समझें:

हमारे अनुभवों के बुद्धि पर जो परिणाम होते हैं उनका पृथक्करण करके ही बुद्धि में धारणाएँ बनती हैं। इस प्रकार स्वानुभव से “दिक्‌” की जो धारणा बनती है उसे “स्व-दिक्‌’ अथवा “व्यक्तिगत दिक्‌’ कहा जाता है। इंद्रियजन्य अनुभवों में अनेक अनुभव समस्त व्यक्तियों के लिए समान होते हैं और ऐसे अनुभव जिस घटना से मिलते हैं, उसे “वास्तव’ कहा जाता है। वास्तव घटनाओं के समुदायों से “वास्तविकता’ की धारणा बनती है। जैसे पुराने समय में मापन के लिए “अंगुल” का प्रयोग “व्यक्तिगत दिक्‌” है परन्तु इसमें दो व्यक्तियों के अंगुली कि मोटाई के अंतर से अलग अलग माप हो जाएगी परन्तु एक उचित यंत्र जैसे इंच पटरी से हम इस प्रकार के भ्रम का निरसन कर सकते हैं | प्रयोगों में मापन करके दिक्‌ की जो धारणा होती है उसे “भौतिक दिक्‌”कहा जा सकता है।

अनुभवों में दिक्‌ का संबंध चार प्रकार से आता है और इन चारों प्रकारों पर विचार करके दिक्‌ के गुणों की व्यावहारिक कल्पनाएँ बनती हैं।

  1. किसी वस्तु के स्थल का निर्देश जब वहाँ कहकर किया जाता है, तब दिक्‌ के एक स्वरूप की कल्पना आती है और इसका अर्थ यह भी माना जाता है कि दिक्‌ का अस्तित्व (अनुभवों से) स्वतंत्र है।
  2. किसी वस्तु के स्थल का निर्देश अन्य वस्तु के “सापेक्ष’ करने पर दिक्‌ की “सापेक्ष स्थिति’ में दूसरा स्वरूप दिखाई देता है।
  3. दिक्‌ का तीसरा स्वरूप वस्तुओं के “आकार’ से मिलता है, जिससे दिक्‌ की विभाज्यता की भी कल्पना की जा सकती है।
  4. आकाश की ओर देखने से दिक्‌ की “विशालता’ (अथवा अनंतता) का चौथा स्वरूप दिखाई देता है।

इन चार प्रकार के स्वरूपों से ही प्राय: दिक्‌ के संबध में व्यावहारिक धारणाएँ बनती हैं और दिक्‌ के गुण भी सूचित होते हैं।

इसी “दिक्” Space के हिन्दू दर्शन को पश्चिम संसार ने यूक्लिडीय ज्यामिति की धारणा से अभिव्यक्त किया है | यूक्लिडीय ज्यामिति में कुछ परिभाषाएँ (जैसे बिंदु, रेखा, तल इत्यादि) तथा कुछ स्वयंसिद्ध तथ्य दिए हुए हैं और इनका तार्किक दृष्टि से विकास किया गया है। ये धारणाएँ केवल काल्पनिक और स्वतंत्र हैं। थोड़ा ही विचार करने पर यह स्पष्ट होगा कि यूक्लिडीय ज्यामिति का व्यवहार की वस्तुओं से कोई भी वास्तविक संबंध नहीं है। क्यों कि वस्तुओं के भीतर दो अणुओं के बीच की दूरी बदल सकती है पर यूक्लिडीय ज्यामिति का सम्पूर्ण अस्तित्व इसे नकार कर ही बनता है |

अपनी मूल कल्पनाओं को विकसित करते समय उनका परस्पर तर्कसंगत संबंध रखना और एक “काल्पनिक’ गणित शास्त्र का निर्मांण करना, इतना ही इस यूक्लिडीय ज्यामिति का मूल उद्देश्य था। इस उद्देश्य में यह ज्यामिति अत्यंत ही सफल रही।

इस ज्यामिति का और भी विस्तार करके उसे व्यावहारिक बनाने के लिए “आदर्श पिंड” की परिभाषा यह है कि इसके दो बिंदुओं का अंतर किसी भी परिस्थिति में उतना ही रहता है।

हालांकि मनुष्य दिक् में केवल तीन आयामों की कल्पना कर सकते हैं और उनकी इन्द्रियाँ उन्हें बताती हैं के वे तीन आयामों वाले ब्रह्माण्ड में रहते हैं, गणित में जितने चाहे उतने आयामों पर अध्ययन किया जा सकता है और किया जाता है। कुछ वैज्ञानिकों का यह भी मानना है के ब्रह्माण्ड में 10 या उस से भी अधिक आयाम हैं लेकिन मनाव इन्द्रियाँ और मस्तिष्क इनमे से केवल तीन ही को भांप पाती हैं। भौतिकी के स्ट्रिंग थ़िओरी में ऐसी ही कल्पना की गयी है।

शायद यही कारण है कि अर्जुन ने कृष्ण के दिव्य रूप को दशों आयामों में विस्तारित बताया हो |

आइये भारतीय दर्शन से उद्भूत “काल (Time)” को समझें:

घटनाओं से प्राप्त इंद्रियजन्य अनुभवों का विचार किया जाए तो उनके दो प्रकार होते हैं। घटनाओं के स्थानभेद से दिक्‌ की कल्पना होती है और उनके क्रम-भेद से काल की कल्पना होती है। इस प्रकार दिक्‌ और काल हमारी विचारधारा में संदिग्ध रूप से प्रवेश करते हैं। दिक्‌ जैसा ही काल भी व्यक्तिगत या  होता है और प्रत्येक व्यक्ति की कालगणना स्वतंत्र तथा स्वेच्छ हो सकती है।

इतना ही नहीं, इस स्व-काल की गणना में भी परिवर्तन होता है और वह व्यक्ति के स्वास्थ्य, अवस्था इत्यादि स्थितियों पर निर्भर करता है, जैसे, प्रेमिका के साथ मनुष्य मग्न हो तो काल तेजी से कटता है। जबकि वही व्यक्ति श्मशान में हो या प्रेमिका कि प्रतीक्षा में हो तो वही पल रुका हुआ प्रतीत होता है| अत: व्यक्तिगत अथवा स्व-काल विश्वास योग्य नहीं रहता।

किसी प्राकृतिक घटना से – दिन और रात से – जो काल का मापन होगा वह व्यक्तिगत नहीं रहेगा और सब लोगों के लिए समान होगा। अत: ऐसे काल को सार्वजनिक काल कहा जाता है। दिन और रात काल के स्थूल विभाग हैं। इनके छोटे विभाग किए जाएँ तो व्यवहार में कालमापन के लिए वे अधिक उपयुक्त होते हैं। जैसे हिन्दू कालगणना चन्द्र वार, तिथि, करण, योग और नक्षत्र के आधार पर जबकि ग्रेगेरियन काल गणना सौर दिवस के घंटा, मिनट और सेकेण्ड के विभाजन पर निर्धारित है|

दिक्‌ की भाँति काल के भी चार स्वरूप व्यवहार में दिखाई देते हैं। किसी घटना अथवा अनुभव से “कब?’ प्रश्न उपस्थित होता है और इसका दिक्‌ विषयक “कहाँ’ से साम्य है। इस कल्पना से काल का अस्तित्व (अनुभवों से) स्वतंत्र समझा जाता है। किसी घटना के काल के सापेक्ष दूसरी घटना का वर्णन करते समय काल का सापेक्ष स्वरूप दिखाई देता है।

दो घटनाओं के बीच के काल से काल का जो स्वरूप दिखाई देता है वह दिक्‌ के आकार से समान है। वैसे ही काल के अनादि, अनंत इत्यादि विशेषणों से काल की विशालता दिखाई दती है। दिक्‌ तथा काल के चारों स्वरूपों को, या गुणों को कहिए, मिलाकर विचार करने पर इनके विषय में हमारी जो धारणाएँ बनती हैं उनको “स्व’ या “व्यक्तिगत’ अथवा “मनोवैज्ञानिक’ दिक्‌ और काल कहा जाता है।

काश न्यूटन ने कणाद का वैशेषिक दर्शन पढ़ा होता!:

पश्चिम का विज्ञान और यूक्लिडीय ज्यामिति का दृष्टि से न्यूटन ने अपनी दिक्‌ (Space) और काल (Time) की धारणाएँ निश्चित रूप से प्रस्तुत की और भौतिकी का विकास प्राय: वर्तमान शताब्दी के प्रारंभ तक इन्हीं धारणाओं पर निर्भर रहा। न्यूटन ने दिक्‌ (Space) को स्वतंत्र सत्ता समझकर उसके गुण भी दिए। न्यूटन के अनुसार दिक्‌ (Space) के गुण सर्व दिशाओं में तथा सर्व बिंदुओं पर समान ही होते हैं, अर्थात्‌ दिक्‌ (Space) समदिक्‌, समांग तथा एक समान है। अत: पदार्थों के गुण दिक्‌ (Space) में सभी स्थानों पर समान ही होते हैं। दिक्‌ (Space) अनंत है और न्यूटन के दिक्‌ (Space) में लंबाई, काल तथा गति से अबाधित रहती है।

काल (Time) के विषय में भी न्यूटन ने अपनी धारणा दी है और यह धारणा भी उस समय के भौतिकी के विकास के अनुसार ही थी। न्यूटन के अनुसार काल (Time) भी एक स्वतंत्र सत्ता है। काल का विशेष गुण यह है कि वह समान गति से सतत और सर्वत्र “बहता’ है और किसी भी परिस्थिति का उसके ऊपर कोई भी परिणाम नहीं होता। काल भी अनंत है।

सारांश में, न्यूटन के अनुसार दिक्‌ तथा काल दोनों ही स्वतंत्र और निरपेक्ष सत्ताएँ होती हैं। न्यूटन आदि की यांत्रिकी इन्हीं धारणाओं पर निर्भर थी। यांत्रिकी में गति और त्वरण, इन दोनों के लिए दिक्‌ और काल को निश्चित रूप देना आवश्यक था और उस समय तो इन धारणाओं में कोई भी त्रुटि दिखाई नहीं देती थी। वैसे ही भौतिकी में न्यूटन का इतना प्रभाव था कि इन धारणाओं पर शंका प्रदर्शित करना संभव नहीं था।

फेडरिक रेमान जिन्होंने पाश्चात्य विज्ञान को किया हिन्दू दर्शन के और करीब:

जर्मन गणितज्ञ रेमान (Georg Friedrich Bernhard Riemann) और रुसी निकोलाई लोबचेवेस्की (Nikolai Lobachevsky) इत्यादि गणितज्ञों ने यह सिद्ध किया कि यूक्लिडीय ज्यामिति के कुछ स्वयंतथ्यों में उचित परिवर्तन करने पर अयूक्लिडीय ज्यामितियों का निर्माण हो सकता है। विशेषत: रीमान के अयूक्लिडीय ज्यामिति से यह स्पष्ट हुआ कि यूक्लिडीय ज्यामिति ही केवल मौलिक नहीं है। यद्यपि अयूक्लिडीय ज्यामितियाँ कल्पना करने में कठिन होती हैं, तथापि तर्कसम्मत होने से उनके फल अत्यंत रोचक तथा उपयुक्त होते हैं। इनमें तीन से अधिक विमितियों के दिक्‌ (Space) की (जिसे हम “अति दिक्‌’ भी कह सकते हैं) जो कल्पना होती है, उस दिक्‌ की वक्रता की कल्पना विशेष रूप से उपयुक्त हुई।

इसका अर्थ है कि हमारे सहज इन्द्रियातीत गुणों से परे भी दिक्-काल का एक विशाल और अज्ञात ताना बाना है जिसे हम गणित के माध्यम से सूत्रों में तो लिख पा रहे हैं परन्तु सहज इन्द्रियों से देख या महसूस नहीं कर पा रहे| और इसलिए अब भारतीय दर्शन के महत्त्व को पश्चिम ने समझा और नतमस्तक हो गए |

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अष्टावक्र गीता में राजा जनक और इनके गुरु अष्टावक्र के बीच हुए संवाद है, जिसके परिणाम स्वरूप राजा जनक को परमज्ञान की प्राप्ति हुई। भाग 19 में परमज्ञान प्राप्ति के बाद अपने अनुभव व्यक्त करते हुए भौतिक जगत की विभिन्न अवधारणाओं से मुक्ति की घोषणा करते हुए, जनक ने दिक् व काल को एक ही साथ वर्णित किया है।

क्व भूतं क्व भविष्यद् वा वर्तमानमपि क्व वा।
क्व देशः क्व च वा नित्यं स्वमहिम्नि स्थितस्य मे॥ 19-3

(अष्टावक्र: महागीता)

भावार्थ : जनक कहते हैं की, नित्य अपनी महिमा में स्थित हुए मेरे लिए क्या भूत है, और क्या भविष्य है, और क्या वर्तमान ही है, क्या देश है और क्या काल है?

जनक ने कहा, आपकी कृपा से मैं वहां हूं जहां मेरे मन में ये प्रश्न उठ रहे हैं, जिज्ञासा उठ रही है कि कहां गया समय, कहां गया वर्तमान, कहां गया भूत, कहां गया भविष्य? और देश भी खो गया है। मैं शून्य में खड़ा हूं। और परम महिमा में विराजमान हूं।

“नित्यं स्वमहिम्नि स्थितस्य में”….. शाश्वत रूप से स्थिर हो गया हूं। इसमें कुछ परिवर्तन भी नहीं हो रहा है, कुछ आ नहीं रहा है, कुछ जा नहीं रहा है। जो है, जैसा है, वैसा ही ठहरा है। अकंप, निष्कंप। यह जीवन की परम अनुभूति है।

यह दोनों शब्द उन्होंने एक श्लोक में कहे, दोनों का संबंध स्मरण में होगा। दोनों का संबंध उनके अनुभव में होगा। देश और काल एक ही घटना के दो पहलू हैं। जैसे ही समय गया वैसे ही देश चला जाता है। कठिन होगा समझना, क्योंकि बुद्धि तो समय और देश में जीती है। बुद्धि के पार एक ऐसा स्थान है, जहां दिक्-काल (Space-Time) का भेद भी मिट जाता है। व्यक्ति कालातीत हो कैवल्य या मोक्ष के परमानन्द को प्राप्त कर जाता है|

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देशकालविमुक्तोअस्मि दिगम्बरसुखोअस्म्यहम्|
नास्ति नास्ति विमुक्तोअस्मि नकाररहितोअस्म्यहम् ||

मैत्रेय्युपनिषद में भी ऋषि स्वमुक्ति की घोषणा करते हुए, दिक् व काल को एक ही साथ वर्णित करते हैं।

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श्रीमद जगद्गुरु शंकराचार्य ने निर्वाण शतकम में कहा है;

अहम् निर्विकल्पो निराकार रूपो
विभुव्याप्य सर्वत्र सर्वेन्द्रियाणाम |
सदा मे समत्वं न मुक्ति: न बंध:
चिदानंद रूप: शिवोहम शिवोहम ||6||

मैं समस्त संदेहों से परे, बिना किसी आकार वाला, सर्वगत, सर्वव्यापक, सभी इन्द्रियों को व्याप्त करके स्थित हूँ,
मैं सदैव समता में स्थित हूँ, न मुझमें मुक्ति है और न बंधन, मैं चैतन्य रूप हूँ, आनंद हूँ, शिव हूँ, शिव हूँ…!

I am all pervasive. I am without any attributes, and without any form.
I have neither attachment to the world, nor to liberation (mukti).
I have no wishes for anything because I am everything, everywhere, every time, always in equilibrium.
I am indeed, That eternal knowing and bliss, the auspicious (Shivam), love and pure consciousness.

 

इस प्रकार, मोक्ष, कैवल्य और परमानन्द कि अवस्था वह है जब मनुष्य दिक्-काल की सीमा को तोड़ फेडरिक रेमान कि अति दिक् की सीमा का अनुभव कर ब्रम्हाण्ड के कालातीत विस्तार में वैसे ही स्थितिप्रज्ञ हो जाए यह वही स्थिति प्रज्ञता है जिसे आइन्स्टीन ने अपने सापेक्षिकता का सिद्धांत कहा कि;

ब्रह्माण्ड फैल रहा है। इसका बड़ा कारण यह नहीं है के ब्रह्माण्ड की वस्तुएँ तेज़ी से एक दुसरे से दूर जा रहीं हैं, बल्कि यह है के उनके बीच का दिक् स्वयं ही खिच कर फैल रहा है इस लिए इसमें स्थिरता प्रतीत हो रही है।

 

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Shivesh Pratap

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