जीवन के श्लोक भाग-5
आशा है आप सभी ने भाग 1 , भाग 2 , भाग 3 एवं भाग 4 पढ़ कर अब यहाँ भाग 5 पढ़ने जा रहे हैं। आशा है की जीवन पर आधारित यह संस्कृत श्लोक आप सभी को बहुत अच्छे लग रहे होंगे।
चलं वित्तं चलं चित्तं चले जीवितयौवने ।
चलालमिदं सर्वं कीर्तिर्यस्य स जीवति ॥
वित्त, चित्त, जीवन और युवानी – ये सभी चंचल हैं; पर जिसकी कीर्ति है, उसीको जीया कहते हैं ।
आहरस्त्वपि सर्वस्य त्रिविधो भवति प्रियः ।
यज्ञस्तपस्तथा दानं तेषां भेदमिमं श्रुणु ॥
आहार भी सबको अपने अपने स्वभाव अनुसार तीन प्रकार का अच्छा लगता है, और वैसे हि यज्ञ, तप और दान भी तीन-तीन प्रकार के होते हैं; उनके भेद को सुन ।
वहेदमित्रं स्कन्धेन यावत्कालविपर्ययः ।
आगतं समयं वीक्ष्य भिंद्याद्घटमिवाश्मनि ॥
जब तक विपरीत समय है तब तक शत्रु को कंधे पर डालकर ले जाना चाहिए, पर योग्य समय आते ही जैसे मटके को पत्थर पर पटककर फोडते हैं वैसे उसका नाश कर देना चाहिए ।
जीवन्तोऽपि मृताःपञ्च व्यासेन परिकीर्तिताः ।
दरिद्रो व्यधितो मूर्खः प्रवासी नित्यसेवकः ॥
दरिद्री, बीमार, मूर्ख, प्रवासी और कायमी नौकर, ये पाँच जिंदा मुर्दे है, ऐसा श्री व्यासमुनि ने कहा है ।
शनैः पन्थाः शनैः कन्था शनैः पर्वतमस्तके ।
शनैर्विद्या शनैर्वित्तं पञ्चैतानि शनैः शनैः ॥
आहिस्ता आहिस्ता (धैर्य से) रास्ता काटना, आहिस्ता चद्दर सीना (या वैराग्य लेना), आहिस्ता पर्वत सर करना, आहिस्ता विद्या प्राप्त करना और पैसे भी आहिस्ता आहिस्ता कमाना ।
प्रियवाक्यप्रदानेन सर्वे तुष्यन्ति जन्तवः ।
तस्मात् तदेव वक्तव्यं वचने का दरिद्रता ॥
प्रिय वाणी बोलने से सभी संतुष्ट रहते हैं, अर्थात् सदैव प्रिय भाषण ही करना । प्रिय बोलने में क्यों कंजूसी करना ?
यातयामं गतरसं पूति पर्युषितं च यत् ।
उच्छिष्टमपि चामेध्यं भोजनं तामसप्रियम् ॥
जो आहार आधा कच्चा-पक्का, सूख गये रसवाला, स्वभाव से दुर्गंधी, बासी और जूठा हो, तथा जो अपिवत्र हो, वैसा आहार तामसी इन्सान को प्रिय होता है ।
कट्वम्ललवणात्युष्णतीक्ष्णरुक्षविदाहिनः ।
आहारा राजसस्येष्टा दुःखशोकमयप्रदाः ॥
कटु, खट्टा, नमकीन, अति उष्ण, तीखा, भूंजा हुआ, दाह देनेवाला, और दुःख, चिन्ता और रोगों को जन्म देनेवाला आहार, राजसी इन्सान को प्रिय होता है ।
आयुःसत्त्वबलारोग्यसुखप्रीतिविवर्धनाः ।
रस्याः स्निग्धाः स्थिरा हृद्या आहारा सात्त्विकप्रियाः ॥
आयुष्य, बुद्धि, बल, आरोग्य, सुख और प्रीति बढानेवाला, रसयुक्त, स्निग्ध, स्थिर रहेनेवाले (शरीर में ओज उत्पन्न करनेवाले) और मन को भानेवाले आहार, सात्त्विक इन्सान को प्रिय होते हैं ।
Shlokas for Life with Hindi meaning
वक्तृत्वं सुंदरं यस्य कीर्तिर्यस्य भुवस्तले ।
लक्ष्यं च सर्वकार्येषु स वै वकील इति स्मृतं ॥
व-की-ल याने वक्तृत्व, कीर्ति, और लक्ष्य तीनों से जो युक्त है, उसे वकील कहते हैं ।
अलभ्यं चैव लिप्सते लब्धं रक्षेदवक्षयात् ।
रक्षितं वर्धयेत् सम्यक् वृद्धं तीर्थेषु निक्षिपेत् ॥
जो प्राप्त नहीं हुआ उसे प्राप्त करने की ईच्छा रखनी चाहिए; जो प्राप्त हुआ हो, उसका क्षय न हो, ऐसे उसकी रक्षा करनी चाहिए । रक्षित किया हुआ बढाना चाहिए; और बढा हुआ तीर्थ (तीर्थरुप कार्य) में खर्च करना चाहिए ।
शुभं करोतु कल्याणमारोग्यं धनसंपदा ।
शत्रुबुद्धिविनाशाय दीपज्योतिर्नमोऽस्तु ते ॥
दीपज्योतिः परब्रह्म दीपज्योतिर्जनार्दनः ।
दीपो हरतु मे पापं दीपज्योतिर्नमोऽस्तु ते ॥
हे दीपज्योति ! तू हमारा शुभ करनेवाली, कल्याण करनेवाली, हमें आरोग्य और धनसंपदा देनेवाली, शत्रुबुद्धि का विनाश करनेवाली है । दीपज्योति, तुझे नमस्कार ! तू परब्रह्म है, तू जनार्दन है, तू हमारे पापों का नाश करती है, तुझे नमस्कार !
गोभिविप्रैश्च वेदैश्च सतीभिः सत्यवादिभिः ।
अलुब्धैः दानशूरैश्च सप्तभिर्धार्यते मही ॥
गाय, ब्राह्मण, वेद, सती, सत्यवादी, निर्लोभी, और दानवीर – इन सातों से पृथ्वी धारण होती है ।
प्रमदा मदिरा लक्ष्मीर्विज्ञेया त्रिविधा सुरा ।
दृष्ट्वैवोन्मादयत्यैका पीता चान्याति संचयात् ॥
सुरा तीन प्रकार की है – प्रमदा, मदिरा और लक्ष्मी । एक को देखने से, एक को पीने से और तीसरी को संचय करने से मद पैदा होता है ।
उपक्रमोपसंहारौ अभ्यासोऽपूर्वता फलम् ।
अर्थवादोपपत्ती च लिङ्गं तात्पर्यनिर्णये ॥
किसी भी ग्रंथ का तात्पर्य निकालना हो तो उसका आरंभ, अंत, अभ्यास का नावीन्य, फल, अर्थवाद और उपपत्ति – इन सात बातों को साधन बनाकर निर्णय करना चाहिए ।
परद्रव्येष्वाबिध्यानं मनसाऽनिष्टचिन्तनम् ।
वितथाऽभिनिवेशश्च त्रिविधं कर्म मानसम् ॥
दूसरे का धन अन्याय से लेने का विचार करना, दूसरे का अनिष्ट सोचना, और मन में मिथ्या बातों का (याने नास्तिक) विचार करना – ये तीन मानसिक पाप कर्म है ।
पारुष्यमनृतं चैव पैशुन्यं चापि सर्वशः ।
असम्बध्धप्रलापश्च वाङ्ग्मयं स्याच्चतुर्विधम् ॥
कठोर वचन बोलना, झूठ बोलना, दूसरे की चुगली करना, और बेमतलब बातें करना – ये चार वाणी के पाप है ।
तृणं ब्रह्मविदः स्वर्गः तृणं शूरस्य जीवनम् ।
जिताक्षस्य तृणं नारी निःस्पृहस्य तृणं जगत् ॥
ब्रह्मविद् के मन स्वर्ग, शूरवीर को जीवन, जितेन्द्रिय को नारी (या नर), और निस्पृही को जगत तिन्के समान है ।
अहिंसा सत्यमक्रोधो दानमेतत् चतुष्टयम् ।
अजातशत्रो सेवस्य धर्मः एष सनातनः ॥
हे अजातशत्रु ! अहिंसा, सत्य, अक्रोध और दान – इन चारों का सेवन कर, यही सनातन धर्म है ।
प्रियवाक्यप्रदानेन सर्वे तुष्यन्ति जन्तवः ।
तस्मात् तदेव वक्तव्यं वचने का दरिद्रता ॥
प्रियवाक्य बोलने से सभी संतुष्ट होते है, इस लिए वैसा हि बोलना । बोलने में क्यों दरिद्री बनना ?
माने तपसि शौर्ये वा विज्ञाने विनये नये ।
विस्मयो नैव कर्तव्यः बहुरत्ना वसुन्धरा ॥
मान, तप, बहादुरी, विज्ञान, विनय और नीति इत्यादि का विस्मय नहीं करना, क्यों कि वसुंधरा तो बहुरत्नवाली है ।