यावत् वित्तो पार्जन शक्तः तावत् निजपरिवारो रक्तः ।
तदनु जरया जर्जरदेहे वार्तां कोऽपि न पृच्छति गेहे ॥
जब तक वित्त कमाने की शक्ति है, तब तक हि परिवार के लोग प्यार रखते हैं । पर जब बुढापे से देह जीर्ण होता है तब घर में कोई भाव तक नहीं पूछता ।
निर्धनं पुरुषं वेश्या प्रजा भग्नं नृपं त्यजेत् ।
खगा वीतफलं वृक्षं भुक्ता अभ्यागता गृहम् ॥
वेश्या निर्धन पुरुष का, प्रजा पदभ्रष्ट राजा का, पंछी फलरहित वृक्ष का, और खाने के पश्चात् महेमान घर का त्याग करते हैं (अर्थात् स्वार्थसिद्धि के बाद सब चले जाते हैं) ।
कृतार्थः स्वामिनं द्वेष्टि कृतदारस्तु मातरम् ।
जातापत्या पतिं द्वेष्टि गतरोगाश्चिकित्सकम् ॥
जो (धन से) संतुष्ट हो गया है वह शेठ का द्वेष करता है, स्त्री मिलने पर पुत्र माँ का, अपत्य मिलने पर पत्नी पति का, और रोग मिट जाने पर रोगी वैद्य का द्वेष करने लगता है (उन्हें दुर्लक्ष करने लगते हैं) ।
नौकां वै भजते तावत् यावत् पारं न गच्छति ।
उत्तीर्णे तु नदीपारे नौकायाः किं प्रयोजनम् ॥
जब तक पार नहीं उतरते तब तक नौका का आश्रय लिया जाता है । नदी पार करने के पश्चात् नौका का क्या प्रयोजन ?
को न याति वशं लोके मुखे पिण्डेन पूरितः ।
मृदङ्गो मुखलेपेन करोति मधुरध्वनिम् ॥
इस जगत में मुख में पिंड देने के बाद कौन वश नहीं होता ? मृदंग के मुख पर लेप लगाने से वह मधुर आवाज़ करता है ।
कार्यार्थी भजते लोके यावत्कार्यं न सिध्यति ।
उत्तीर्णे च परे पारे नौकायाः किं प्रयोजनम् ॥
जब तक कार्य सिद्ध नहीं होता, तब तक हि कार्य की इच्छा करनेवाला इन्सान नज़दीक आता है । किनारे उतरने के बाद नौका का क्या प्रयोजन ?
वृक्ष क्षीणफलं त्यजन्ति विहगाः शुष्कं सरः सारसाः
निर्द्रव्यं पुरुषं त्यजन्ति गणिकाः भ्रष्टं नृपं मन्त्रिणः ।
पुष्पं पर्युषितं त्यजन्ति मधुपाः दग्धं वनान्तं मृगाः
सर्वः कार्यवशात् जनोऽभिरमते तत् कस्य को वल्लभः ॥
बिगैर फल के वृक्ष का पंछी त्याग करते हैं; सारस सूखे सरोवर का, गणिका निर्द्रव्य पुरुष का, मंत्री भ्रष्ट राजा का, भौंरे रसहीन पुष्पों का, और हिरन जलते वन का त्याग करते हैं । सब लोग (किसी न किसी) वजह से प्यार करते हैं, अन्यथा कौन किसे प्रिय है ?
ईर्ष्यी घृणी न संतुष्टः क्रोधनो नित्याशङ्कितः।
परभाग्योपजीवी च षडेते नित्यदुः खिताः।।
ईर्ष्या करने वाला, घृणा करने वाला, असंतोषी, क्रोधी, सदा संकित रहने वाला और दूसरों के भाग्य पर जीवन-निर्वाह करने वाला – ये छः सदा दुखी रहते हैं।
पन्चाग्न्यो मनुष्येण परिचर्या: प्रयत्नत: ।
पिता माताग्निरात्मा च गुरुश्च भरतर्षभ।।
भरतश्रेष्ठ ! पिता, माता अग्नि,आत्मा और गुरु – मनुष्य को इन पांच अग्नियों की बड़े यत्न से सेवा करनी चाहिए।
एक: पापानि कुरुते फलं भुङ्क्ते महाजन: ।
भोक्तारो विप्रमुच्यन्ते कर्ता दोषेण लिप्यते।।
मनुष्य अकेला पाप करता है और बहुत से लोग उसका आनंद उठाते हैं। आनंद उठाने वाले तो बच जाते हैं; पर पाप करने वाला दोष का भागी होता है।
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