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Sanskrit shlokas for sukh-dukh with in hindi | सुख-दुःख पर संस्कृत श्लोक

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Sanskrit shlokas for sukh-dukh with in hindi |

सुख-दुःख पर संस्कृत श्लोक

सुख-दुःख मनुष्य की अनुभूति के ही परिणाम हैं। उसकी मान्यता कल्पना एवं अनुभूति विशेष के ही रूप में सुख-दुख का स्वरूप बनता है। सुख-दुःख मनुष्य के मानस पुत्र हैं ऐसा कह दिया जाय तो कोई अत्युक्ति न होगी। मनुष्य की अपनी विशेष अनुभूतियां, मानसिक स्थिति में ही सुख-दुःख का जन्म होता है। सुख-दुःख का सम्बन्ध मनुष्य की भावात्मक स्थिति से मुख्य है। जैसा मनुष्य का भावना स्तर होगा उसी के रूप में सुख-दुःख की अनुभूति होगी।

मातुलो यस्य गोविन्दः पिता यस्य धनञ्जयः ।
सोऽपि कालवशं प्राप्तः कालो हि दुरतिक्रमः ॥

(स्वयं) कृष्ण भगवान जिसके मामा थे, अर्जुन जैसे पिता थे, वैसा अभिमन्यु भी काल को प्राप्त हुआ । काल को मिटा पाना दुर्गम है ।

ऐश्वर्यतिमिरो चक्षुः पश्यन्नपि न पश्यति ।
तस्य निर्मलतायां तु दारिद्र्यं परमौषधम् ॥

ऐश्वर्य से अंध बनी हुई आँख, देखने के बावजुद कुछ देखती नहीं । वैसी आँखों को निर्मल बनाने के लिए दारिद्र्य परम् औषधि है ।

शक्तिं करोति सञ्चारे शीतोष्णे मर्षयत्यपि ।
दीपयत्युदरे वह्निः दारिद्र्यं परमौषधम् ॥

दारिद्र्य परम् औषधि है, क्यों कि वह संचार करने की शक्ति देता है । शीत और उष्ण सहन कराता है, और पेट में अग्नि प्रज्वलित करता है ।

अवश्यंभाविभावानां प्रतीकारो भवेद्यदि ।
तदा दुःखैर्न लिप्येरन् नलरामयुधिष्ठिराः ॥

अवश्यंभावि घटनाओं का यदि प्रतीकार हो सकता (उन्हें टाला जा सकता) तो नल, राम और युधिष्ठिर दुःख से अलिप्त रहते

कालः पचति भूतानि कालः संहरते तथा ।
कालः सुप्तेषु जागर्ति कालो हि दुरतिक्रमः ॥

काल प्राणियों को पकाता है, उनका संहार करता है । सोये हों, तब भी काल तो जागृत होता है, काल को रोक पाना दुर्गम है ।

यस्य स्नेहो भयं तस्य स्नेहो दुःखस्य भाजनम् ।
स्नेहमूलानि दुःखानि तानि त्यक्त्वा सुखं वसेत् ॥

जिसके ह्रदय में स्नेह है उसे भय लगता है, स्नेह यह दुःखका पात्र है, सभी दुःखका मूल है । इसलिए वह दुःख (याने कि स्नेह) छोडकर मानवी ने सुख से रहना चाहिए ।

शोकस्थानसहस्त्राणि भयस्थान शतानि च ।
दिवसे दिवसे मूढमाविशन्ति न पण्डितम् ॥

हर दिन हजारों दुःखकारक और सैंकडों भयप्रद प्रसंग अज्ञानी मानव पर कब्जा पाते हैं, ज्ञानी मानव पर नहीं । (शोक करनेवाले युधिष्ठिर और पुत्र शोक करनेवाले धुतराष्ट्र को सांत्वन देते हुए व्यास और विदूर की उक्ति)

सुखस्य दुःखस्य न कोडपि दाता परो ददाति इति कुबुध्दिरेषा ।
अहं करोमीति वृथाभिमानः स्वकर्मसूत्रग्रथितो हि लोकः ॥

सुख और दुःख देनेवाला कोई नहीं है । दूसरा आदमी हम को वह देता है यह विचार भी गलत है । “मैं करता हूँ” एसा अभिमान व्यर्थ है । सभी लोग अपने अपने पूर्व कर्मों के सूत्र से बंधे हुए हैं । (निषादराज गृहक कैकेयी और मंथराको दोष देता है तब लक्षमण की उक्ति)

अपि शाकं पचानस्य सुखं वै मधवन् गृहे ।
अर्जितं स्वेन वीर्येण नाप्यपाश्रित्य कंचन ॥

हे इन्द्र ! किसी पर निर्भर न रहकर अपनी हिंमत से पायी हुई सुखी रोटी भी अपने घर खाने में सुख है ।

कल्याणी बत गाथेयं लौकिकी प्रतिभाति माम् ।
एति जीवन्तमानन्दो नरं वर्षशतादपि ॥

सौ साल बाद भी जीवंत मानवको आनंद होता है” ऐसी जो कहावत है वह कल्याणकारी है एसा मुझे लगता है । 

एकस्य दुःखस्य न यावदन्तं गच्छाम्यहं पारिमिवार्णवस्य ।
तावद् द्वितीयं समुपस्थितं मे छिद्रेष्वनर्था बहुलीभवन्ति ॥

समंदर पार करने जैसी एक आपत्ति में से बाहर निकलता हुँ उतने में दूसरी सामने आकर खडी रहती है । आपत्ति के अनर्थ एक के बाद एक आते ही रहते हैं ।

नात्मच्छन्देन भूतानां जीवितं मरणं तथा ।
नाप्यकाले सुख प्राप्यं दुःखं कापि यदूत्तम ॥

हे यदुश्रेष्ठ ! प्राणी को जैसे अपनी इच्छा अनुसार जन्म और मरण प्राप्त नहीं होते वैसे सुख-दुःख भी अकाल नहीं प्राप्त होते ।

ये च मूठतमा लोके ये च बुध्देः परं गताः ।
ते एव सुखमेधन्ते मध्यमः क्लिश्यते जनः ॥

इस दुनिया में जो अत्यंत मूढ है वह, या तो जो बुद्धि के उस पार गया हो वह – ये दो हि सुख प्राप्त करते हैं । मध्य में रहे इन्सान दुःखी होते हैं ।

शुभेन कर्मणा सौख्यं दुःखं पापेन कर्मणा ।
कृतं भवति सर्वत्र नाकृतं विद्यते कचित ॥

त्कर्म से सुख और दुष्कर्म से दुःख प्राप्त होता है । जो पहले किया है उसीका फ़ल मिलता है, जो नहीं किया उसका फ़ल भी वही है ।

प्रत्युपस्थितकालस्य सुखस्य परिवर्जनम् ।
अनागतसुखाशा च नैव बिध्दि र्मता मम ॥

आये हुए सुखका त्याग करके, न मिले हुए सुख की आशा करना यह बुध्दिमान का लक्षण नहीं है ।

कचिद वीणावाद्यं कचिदपि हाहेति रुदितम्
कचिद रम्या रामा कचिदपि जराजर्जरतनुः ।
कचिद विद्व्द्रोष्ठी कचिदपि सुरामत्तकलहः
न जाने संसारः किममृतमयः किं विषमयः ॥

कोई जगह पे वीणावादन सुनाई देता है तो कोई जगह पे “हाय हाय” एसा रुदन । कहीं सुंदर स्त्री दिखाई देती है तो कहीं वृध्धावस्था से जर्जरित शरीर । कोई जगह पे विद्वान चर्चा करते हैं तो कहीं मद्यपान की वजह से कलह होते है । दुनियामें जीवन अमृतमय (सुखमय है या विषमय( दुःखमय, यही समज में नहीं आता ।

अनन्तानीह दुःखानि सुखं तृणलवोपमम् ।
नातः सुखेषु बध्नीयात् दृष्टिं दुःखानुबन्धिषु ॥

इस जगत में दुःख अनंत है और सुख तो तृण की तरह अल्प ! इसलिए जिसमें सुख के पीछे दुःख आता है वैसे सुखमें इन्सान ने आसक्ति नहीं रखनी चाहिए ।

सुखं हि दुःखान्यमुभूय शोभते धनान्धकारेष्विव दीपदर्शनम् ।
सुखात्तु यो याति नरो दरिद्रताम् धृतः शरीरेण मृतः स जीवति ॥

दुःख के अनुभव बाद सुख आता है तो घोर अंधकार के बाद आनेवाले दीये की तरह शोभा देता है । पर जिसे सुख भुगतने के बाद दारिद्र्य (दुःख) आता है वह जिंदा होने के बावजूद मरा हुआ है

कस्यैकान्तं सुखमुपनतं दुःखमेकान्ततो वा ।
नीचै र्गच्छत्युपरि च दशा चक्रनेमिक्रमेण ॥

किसको केवल सुख या दुःख ही कायम मिला है ? किसी को नहीं । सुख और दुःख की दशा तो चक्र के हाथे की तरह हमेशा उपर नीचे जाती है ।

सर्व परवशं दुःखं सर्वमात्मवशं सुखम् ।
एतद विद्यात्समासेन लक्षणं सुखदुःखयोः ॥

दूसरे पर आधार रखना पडे वह दुःख, स्वयं के आधीन हो वह सुख; यही सुख और दुःखका संक्षिप्त में लक्षण है ।

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Shweta Pratap

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