हेमधेनुधरादीनां दातारः सुलभा भुवि ।
दुर्लभः पुरुषः लोके यः प्राणिष्वभयप्रदः ॥
इस दुनिया में सोना (सुवर्ण), गाय, पृथ्वी (ज़मीन) इ. देनेवाले सुलभ है, पर प्राणीयों को अभयदान देनेवाले इन्सान दुर्लभ हैं
यो दद्यात् काञ्चनं मेरुं कृत्स्नां चैव वसुन्धराम् ।
एकस्य जीवितं दद्यात् न च तुल्यं युधिष्ठिर ॥
हे युधिष्ठिर ! जो सुवर्ण, मेरु और समग्र पृथ्वी दान में देता है, वह (फिर भी) एक मनुष्य को जीवनदान देनेवाले दान का मुकाबला नहीं कर सकता ।
नाभिषेको न संस्कारः सिंहस्य क्रियते वने ।
विक्रमार्जितसत्त्वस्य स्वयमेव मृगेंद्रता ॥
सिंह को जंगल का राजा नियुक्त करने के लिए न तो कोई अभिषेक किया जाता है, न कोई संस्कार । अपने गुण और पराक्रम से वह खुद ही मृगेंद्रपद प्राप्त करता है ।
भूताभयप्रदानेन सर्वान्कामानवामुयात् ।
दीर्घमायुः च लभते सुखी चैव सदा भवेत् ॥
प्राणियों को अभय देकर सब कामना प्राप्त होती है, दीर्घायुष्य और सदा सुख प्राप्त होता है ।
अभयं सर्वसत्वेभ्यो यो ददाति दयापरः ।
तस्य देहाद्विमुक्तस्य भयं नास्ति कुतश्चन ॥
जो दयालु सब प्राणियों को अभय देता है, उसे मृत्यु के पश्चात् कहीं से भी भय नहीं रहता ।
यो ददाति सहस्त्राणि गवामश्व शतानि च ।
अभयं सर्वसत्वेभ्य स्तद्दानमिति चोच्यते ॥
जो हजारों गाय और सैंकडो घोडे देता है, और सब प्राणियों को अभय देता है, उसे दान कहते हैं ।
अभयं सर्वसत्वेभ्यो यो ददाति दयापरः ।
तस्य देहाद्विमुक्तस्य भयं नास्ति कुतश्चन ॥
जो दयालु सब प्राणियों को अभय देता है, उसे मृत्यु के पश्चात् कहीं से भी भय नहीं रहता ।
यो भूतेष्वभयं दद्यात् भूतेभ्यस्तस्य नो भयम् ।
यादृग् वितीर्यते दानं तादृगासाद्यते फलम् ॥
जो प्राणियों को अभय देता है, उसे प्राणियों से भय नहीं रहेता । जैसा दान दिया जाता है, वैसा ही फल मिलता है ।
महतामपि दानानां कालेन क्षीयते फलम् ।
भीताऽभय प्रदानस्य क्षय एव न विद्यते ॥
बडे दान का भी समय आने पर क्षय होता है । पर भयभीत हुए को अभयदान दिया हो, उसका क्षय नहीं होता ।
एकतः काञनो मेरुः बहुरत्ना वसुन्धरा ।
एकतो भयभीतस्य प्राणिनः प्राणरक्षणम् ॥
(तराजु के) एक पलडे में सुवर्ण का मेरु पर्वत, और बहुरत्ना वसुंधरा है, और दूसरे में भयभीत प्राणी को दिया हुआ जीवनदान है (दोनों समान है) ।
दत्तमिष्टं तपस्तप्तं तीर्थसेवा तथा श्रुतम् ।
सर्वेऽप्यभय दानस्य कलां नार्हन्ति षोडशीम् ॥
इच्छित वस्तु का दान, तप का आचरण, तीर्थसेवा, ज्ञान – ये सब अभयदान की शोभा के सोलहवें भाग जितने भी नहीं ।
जीवानां रक्षणं श्रेष्ठं जीवा जीवितकांक्षिणः ।
तस्मात्समस्त दानेभ्योऽभयदानं प्रशस्यते ॥
जीवों का रक्षण श्रेष्ठ है । जीव जीने की इच्छा रखनेवाले होते हैं, इस लिए सब दानों में अभयदान प्रशंसा-पात्र है ।
वरमेकस्य सत्वस्य दत्ता ह्यभय दक्षिणा ।
न तु विप्रसहस्त्रेभ्यो गोसहस्र मलड्कतम् ॥
हजार विप्रों को, सजायी हुई हजारों गायों के मुकाबले केवल एखाद प्राणी को “अभय” दक्षिणा देना ज़ादा योग्य है ।
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Sunder ati sunder
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