संतोष पर संस्कृत श्लोक | Sanskrit Shlokas for Satisfaction with Hindi Meaning

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संतोष पर संस्कृत श्लोक | Sanskrit Shlokas for Satisfaction with Hindi Meaning

सन्तोषः परमो लाभः सत्सङ्गः परमा गतिः ।
विचारः परमं ज्ञानं शमो हि परमं सुखम् ॥

संतोष परम् बल है, सत्संग परम् गति है, विचार परम् ज्ञान है, और शम परम् सुख है ।

सर्पाः पिबन्ति पवनं न च दुर्बलास्ते शुष्कैस्तृणैः वनगजा बलिनो भवन्ति ।
रुक्षाशनेन मुनयः क्षपयन्ति कालम् सन्तोष एव पुरुषस्य परं निधानम् ॥

सर्प पवन पीकर भी दुर्बल नहि है, जंगली हाथी सूखा घास खाकर भी बलवान बनते हैं, मुनि रुखा खुराक खाकर जिंदगी निकालते हैं । संतोष हि मनुष्य का परम् खजाना है ।

तुष्टो हि राजा यदि सेवकेभ्यो भाग्यात् परं नैव ददाति किञ्चित् ।
अहर्निशं वर्षति वारिवाहः तथापि पत्रत्रितयः पलाशः ॥

यदि राजा सेवकों पर खुश हो फिर भी उनके भाग्य से ज़ादा वह उन्हें कुछ नहि दे सकता । बादल रात-दिन बरसे तो भी पलाश को तो तीन पत्ते हि होते हैं !

तृणं ब्रह्मविदः स्वर्गः तृणं शूरस्य जीवनम् ।
जिताक्षस्य तृणं नारी निस्पृहस्य तृणं जगत् ॥

उदार पुरुष को धन, शूर को मृत्यु, विरक्त को नारी, और निस्पृही को जगत तिन्के समान है ।

आशैव राक्षसी पुंसामाशैव विषमञ्जरी ।
आशैव जीर्णमदिरा नैराश्यं परमं सुखम् ॥

इन्सान के लिए आशा हि राक्षसी, विष लता, और जीर्ण मदिरा है । आशारहितता परम् सुख है ।

क्रोधो वैवस्वतो राजा तृष्णा वैतरणी नदी ।
विद्या कामदुधा धेनुः सन्तोषो नन्दनं वनम् ॥

क्रोध यमराज है, तृष्णा वैतरणी (यमलोक की नदी) नदी है, और संतोष नंदनवन है ।

सौमित्रि र्वदति विभीषणाय लङ्काम् देहि त्वं भुवनपते विनैव कोशम् ।
एतस्मिन् रघुपति राह वाक्यमेतत् विक्रीते करिणि किमङ्कुशे विवादः ॥

लक्ष्मण कहते है, “हे भुवनपति ! बिभीषण को बिना खजाने की लंका दीजिए”, तब रघुपति यह वाक्य बोले, “हाथी को बेचने के बाद अंकुश के बारे में विवाद क्या करना ?”

सन्तोषः परमं सौख्यं सन्तोषः परममृतम् ।
सन्तोषः परमं पथ्यं सन्तोषः परमं हितम् ॥

संतोष, यह परम् सौख्य, परम् अमृत, परम् पथ्य और परम् हितकारक है ।

सन्तोषामृततृप्तानां यत्सुखं शान्तचेतसाम् ।
कुतस्तद्धनलुब्धाना-मितश्चेतश्च धावताम् ॥

जो सुख शांतचित्त लोगों को अमृतस्वरुप संतोष से मिलता है, वह धनलोलुप यहाँ वहाँ भागनेवालों को कहाँ ?

अकृत्वा परसन्तापं अगत्वा खलमन्दिरम् ।
अक्लेशयित्वा चात्मानं यदल्पमपि तद्भहु ॥

अन्य को संताप दिये बगैर, खलपुरुष के घर गये बगैर (लाचारी किये बगैर) और स्वयं को अति कष्ट दिये बगैर जो थोडा भी मिले उसे काफी समज लेना चाहिए ।

सन्तोषैश्वर्यसुखिनां दूरे दुर्गतिभूमयः ।
भोगाशा पाश बध्दानामवमानाः पदे पदे ॥

संतोषरुप ऐश्वर्य से सुखी लोग दुर्गति से दूर रहेते हैं, पर भोगेच्छा के पाश में ज़कडे हुए लोगों का कदम कदम पर (लाचारी की वजह से) अपमान होता है ।

सन्तोषं परमास्थाय सुखार्थी संयतो भवेत् ।
सन्तोषमूलं सुखं दुःखमूलं विपर्ययः ॥

परम् संतोष रखकर सुख की इच्छावाले ने संयमी बनना चाहिए, क्यों कि सुख का मूल संतोष है, और उससे विपरीत (याने असंतोष) दुःख का मूल है ।

वृत्यर्थं नातिचेष्टेत सा हि धात्रैव निर्मिता ।
गर्भादुत्पतिते जन्तौ मातुः प्रस्रवतः स्तनौ ॥

गुजारा चलाने के लिए बहुत दौडधूप करने की जरुरत नहि, क्यों कि वह तो ब्रह्मा ने व्यवस्था की हि है । गर्भ में से बालक उत्पन्न होते हि माँ के स्तन में से दूधप्रसव होने लगता है ।

न योजनशतं दूरं बाध्यमानस्य तृष्णया ।
सन्तुष्टस्य करप्राप्तेऽप्यर्थे भवति नादरः ॥

तृष्णा से पीडित इन्सान को सैंकडो योजन का अंतर भी दूर नहि (लगता) । पर संतोषी मनुष्य को हाथ में आयी चीझ के लिए भी आदर (आसक्ति) नहि होता ।

अन्तो नास्ति पिपासायाः सन्तोषः परमं सुखम् ।
तस्मात्सन्तोषमेवेह परं पश्यन्ति पण्डिताः ॥

तृष्णा अनंत है और संतोष परम् सुख है । इस लिए विद्वज्जन संतोष को हि इस लोक में श्रेष्ठ समजते हैं ।

अकिञ्चनोप्यसौ जन्तुः साम्राज्यसुखमश्नुते ।
आधिव्याधिविनिर्मुक्तं सन्तुष्टं यस्य मानसम् ॥

जिसका मन आधि- व्याधि रहित है और संतुष्ट है, वह गरीब होकर भी साम्राज्य सुख भोगता है ।

अकिञ्चनस्य दान्तस्य शान्तस्य समचेतसः ।
सदा सन्तुष्टमनसः सर्वाः सुखमयाः दिशः ॥

अकिञ्चन, संयमी, शांत, प्रसन्न चित्तवाले, और संतोषी मनुष्य को सब दिशाएँ सुखमय है ।

 

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Shweta Pratap

I am a defense geek

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