दान पर संस्कृत श्लोक भाग -1 | Sanskrit Shlokas on Daan with Hindi meaning

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 दान की महिमा पर संस्कृत श्लोक भाग -1
Sanskrit Shlokas on Daan with Hindi meaning

दाता प्रतिगृहीता च शुद्धि र्देयं च धर्मयुक् ।
देशकालौ च दानानाम ङ्गन्येतानि षड् विदुः ॥

दाता, लेनेवाला, पावित्र्य, देय वस्तु, देश, और काल – ये छे दान के अंग हैं ।

दानेन भूतानि वशी भवन्ति दानेन वैराण्यपि यान्ति नाशम् ।
परोऽपि बन्धुत्वभुपैति दानैर् दानं हि सर्वेव्यसनानि हन्ति ॥

#दान से सभी प्राणी वश होते है; दान से बैर खत्म हो जाता है । #दान से शत्रु भी भाई बन जाता है; दान से ही सभी संकट दूर होते हैं ।

बोधयन्ति न याचन्ते भिक्षाद्वारा गृहे गृहे ।
दीयतां दीयतां नित्यमदातुः फलमीदृशम् ॥

घर घर जानेवाले याचक, भिक्षा नहीं मांग रहे बल्कि यह उपदेश दे रहे हैं कि नित्य दान देते रहो, (अन्यथा) अदातृत्व का परिणाम हम को देख लो !

अनुकूले विधौ देयं एतः पूरयिता हरिः ।
प्रतिकूले बिधौ देयं यतः सर्वं हरिष्यति ॥

तकदीर अनुकूल हो तब दान देना चाहिए क्यों कि सब देने वाला भगवान है । तकदीर प्रतिकूल हो तब भी देना चाहिए क्यों कि सब हरण करने वाला भी भगवान ही है ।

दाता प्रतिगृहीता च शुद्धि र्देयं च धर्मयुक् ।
देशकालौ च दानानाम ङ्गन्येतानि षड् विदुः ॥

दाता, लेनेवाला, पावित्र्य, देय वस्तु, देश, और काल – ये छे दान के अंग हैं ।

आनन्दाश्रूणि रोमाञ्चो बहुमानः प्रियं वचः ।
तथानुमोदता पात्रे दानभूषणपञ्चकम् ॥

आनंदाश्रु, रोमांच, लेनेवाले के प्रति अति आदर, प्रिय वचन, सुपात्र को दान देने का अनुमोदन – ये पाँच दान के भूषण हैं ।

अनादरो विलम्बश्च वै मुख्यं निष्ठुरं वचः ।
पश्चात्तापश्च पञ्चापि दानस्य दूषणानि च ॥

तिरष्कार, देने में विलंब, मुँह फेरना, निष्ठुर वचन, और देने के बाद पश्चाताप – ये पाँच दान के दूषण हैं ।

यद् दत्त्वा तप्यते पश्चादपात्रेभ्यस्तथा च यत् ।
अश्रद्धया च यद्दानं दाननाशास्त्रयः स्वमी ॥

देने के बाद पश्चात्ताप होना, अपात्र को देना, और श्रद्धारहित देना – इनसे दान नष्ट हो जाता है ।

द्वाविमौ पुरुषौ लोके न भूतौ न भविष्यतः ।
प्रार्थितं यश्च कुरुते यश्च नार्थयते परम् ॥

दो प्रकार के लोग होना मुश्किल है; जो दूसरों की प्रार्थना पूरी करता है, और जो दूसरे से कुछ मागता नहीं ।

 लब्धानामपि वित्तानां बोद्धव्यौ द्वावतिक्रमौ ।
अपात्रे प्रतिपत्तिश्च पात्रे चाप्रतिपादनम् ॥

वित्तवानों के हाथ से धन का दो तरीकों से दुरुपयोग होता है; कुपात्र को दान देकर, और सत्पात्र को न देकर ।

पिपीलिकार्जितं धान्यं मक्षिकासंचितं मधु ।
लुब्धेनोपार्जितं द्रव्यं समूलं च विनश्यति ॥

चींटी से इकट्ठा किया हुआ धान्य, मधुमक्खी से इकट्ठा किया हुआ मधु, लोभी से इकट्ठा किया हुआ धन, इन सभी को लेने वाला का मूल से ही नाश होता है ।

अदेशकाले यद्दानमपात्रेभ्यश्च दीयते ।
असत्कृतमवज्ञातं तत्तामसमुदाहृतम् ॥

जो दान बिना सत्कार, तिरष्कारपूर्वक, अयोग्य देश-काल में या कुपात्र को दिया जाता है, वह तामस दान कहलाता है ।

यत्तु प्रत्युपकारार्थं फलमुद्दिश्य वा पुनः ।
दीयते च परिक्लिष्टं तद्दानं राजसं स्मृतम् ॥

जो दान क्लेश से, प्रत्युपकार की भावना से, या फल मिलने की अपेक्षा से दिया जाता है, वह राजस दान कहा गया है ।

दातव्यमिति यद्दानं दीयतेऽनुपकारिणे ।
देशे काले च पात्रे च तद्दानं सात्त्विकं स्मृतम् ॥

“दान देना कर्तव्य है” ऐसी भावना से जो दान देश, काल, और योग्य पात्र देखकर, प्रत्युपकार की भावना रखे बगैर दिया जाता है वह सात्त्विक दान कहा गया है ।

आत्मार्थं जीवलोकेस्मिन् को न जीवति मानवः ।
परं परोपकारार्थं यो जीवति स जीवति ॥

इस दुनिया में अपने लिए कौन मानव नहीं जीता (सब जीते हैं) ? लेकिन परोपकार के लिए जीए उसे जीया कहते हैं ।

यस्मिन् जीवति जीवन्ति बहवः स तु जीवति ।
काकोऽपि किं न कुरुते चंच्वा स्वोदरपूरणम् ॥

जिसके जीने से कई लोग जीते हैं, वह जीया कहलाता है, अन्यथा क्या कौआ भी चोंच से अपना पेट नहीं भरता ?

यस्य जीवन्ति धर्मेण पुत्रा मित्राणि बान्धवाः ।
सफलं जीवितं तस्य नात्मार्थे को हि जीवति ॥

जिसके सत्कर्म से पुत्र, मित्र और बंधु जीते हैं उसका जीवन सफल है अन्यथा अपने लिए कौन नहीं जीता “सब जीते हैं” ।

दानं भोगो नाशस्तिस्त्रो गतयो भवन्ति वित्तस्य ।
यो न ददाति न भुङ्क्ते तस्य तृतीया गतिर्भवति ॥

दान, भोग, व नाश – ये वित्त की तीन गतियाँ हैं । जो देता नहीं है, और भुगतता भी नहीं है, उसके वित्त की तीसरी गति अर्थात् नाश होता है ।

वाणी सरस्वती यस्य भार्या पुत्रवती सती ।
लक्ष्मीः दानवती यस्य सफलं तस्य जीवितम् ॥

जिसकी वाणी रसवती हो, पत्नी पुत्रवती हो, और लक्ष्मी दानवती हो उसका जीवन सफल है ।

 दानोपभोगरहिता दिवसा यस्य यान्ति वै ।
स लोहकारभस्रेव श्वसन्नपि न जीवति ॥

जिसके दिन दान का उपभोग लिये बिना पसार होता है, वह साँस लेते हुए भी लोहार के धमन की भाँति जीवंत नहीं है ।

कुपात्र दानात् च भवेत् दरिद्रो दारिद्र्य दोषेण करोति पापम् ।
पापप्रभावात् नरकं प्रयाति पुनर्दरिद्रः पुनरेव पापी ॥

कुपात्र को दान देने से दरिद्री बनता है । दारिद्र्य दोष से पाप होता है । पाप के प्रभाव से नरक में जाता है; फिर से दरिद्री और फिर से पाप होता है ।

 सुपात्रदानात् च भवेत् धनाढ्यो धनप्रभावेण करोति पुण्यम् ।
पुण्यप्रभावात् सुरलोकवासी पुनर्धनाढ्यः पुनरेव भोगी ॥
सुपात्र को दान देने से व्यक्ति धनवान बनता है; (फिर) धन के प्रभाव से पुण्यकर्म करता है; पुण्य के प्रभाव से उसे स्वर्ग प्राप्त होता है; और फिर से धनवान और फिर से भोगी बनता है ।
 फलं यच्छति दातृभ्यो दानं नात्रास्ति संशयः ।
फलं तुल्यं ददात्येतदाश्चर्यं त्वनुमोदकम् ॥

दान करने से दान फल देता है उसमें संशय नहि, पर पीछे से वह उतना ही आनंद रुपी फल देता है, वह आश्चर्य है ।

सुदानात्प्राप्यते भोगः सुदानात्प्राप्यते यशः ।
सुदानात् जायते कीर्तिः सुदानात् प्राप्यते सुखम् ॥

सत् (सम्यक्) दान करने से यश, कीर्ति और सुख प्राप्त होते हैं ।

मायाहंङ्कार लज्जाभिः प्रत्युपक्रिययाऽथवा ।
यत्किञ्चिद्दीयते दानं न तध्दर्मस्य साधकम् ॥

माया से, अहंकार से, लज्जा से या बदला लेने की भावना से जो कुछ भी दान दिया जाता है, उस दान से धर्म नहीं साधा जाता ।

यदि चास्तमिते सूर्ये न दत्तं धनमर्थिनाम् ।
तध्दनं नैव जानामि प्रातः कस्य भविष्यति ॥

सूर्यास्त के वक्त जो धन याचकों को नहि दिया जाता, वह दूसरे दिन सुबह किसका होगा, यह मैं नहीं जानता !

अशनादीनि दानानि धर्मोपकरणानि च ।
साधुभ्यः साधुयोग्यानि देयानि विधिना बुधैः ॥

साधु पुरुषों को, साधुओं के योग्य अशन आदि धर्म के उपकरणों का दान बुधजनों को विधिपूर्वक करना चाहिए ।

नाना दानं मया दत्तं रत्नानि विविधानि च ।
नो दत्तं मधुरं वाक्यं तेनाहं शूकरो मुखे ॥

मैंने अनेक प्रकार के दान और विविध रत्न दिये, पर एक भी मधुर वाक्य नहीं दिया, इस लिए मेरा मुख सूअर का है ।

अर्थिप्रश्नकृतौ लोके सुलभौ तौ गृहे गृहे ।
दाता चोत्तरदश्चैव दुर्लभौ पुरुषौ भुवि ॥

इस दुनिया में याचक और प्रश्नकर्ता घर-घर में सुलभ है, पर दाता और उत्तर देने वाले अति दुर्लभ है ।

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Shweta Pratap

I am a defense geek

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