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Sanskrit Shlok on Karma with Hindi Meaning

 

नास्तिकः पिशुनश्चैव कृतघ्नो दीर्घदोषकः ।
चत्वारः कर्मचाण्डाला जन्मतश्चापि पञ्चमः ॥

नास्तिक, निर्दय, कृतघ्नी, दीर्घद्वेषी, और अधर्मजन्य संतति – ये पाँचों कर्मचांडाल हैं ।

वागुच्चारोत्सवं मात्रं तत्क्रियां कर्तुमक्षमाः ।
कलौ वेदान्तिनो फाल्गुने बालका इव ॥

लोग वाणी बोलने का आनंद उठाते हैं, पर उस मुताबिक क्रिया करने में समर्थ नहीं होते । कलियुग के वेदांती, फाल्गुन मास के बच्चों जैसे लगते हैं ।

कर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः ।
स बुद्धिमान्मनुष्येषु स युक्तः कृत्स्नकर्मकृत् ॥

जो मनुष्य कर्म में अकर्म देखते हैं, और कर्म में अकर्म को देखता हैं, वह इन्सान सभी मनुष्यों में बुद्धिमान है; एवं वह योगी सम्यक् कर्म करनेवाला है ।

दाने शक्तिः श्रुतौ भक्तिः गुरूपास्तिः गुणे रतिः ।
दमे मतिः दयावृत्तिः षडमी सुकृताङ्कुराः ॥

दातृत्वशक्ति, वेदों में भक्ति, गुरुसेवा, गुणों की आसक्ति, (भोग में नहि पर) इंद्रियसंयम की मति, और दयावृत्ति – इन छे बातों में सत्कार्य के अंकुर हैं ।

कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः ।
अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः ॥

कर्म का स्वरुप जानना चाहिए, अकर्म का और विकर्म का स्वरुप भी जानना चाहिए; क्यों कि कर्म की गति अति गहन है ।

सुखस्य दुःखस्य न कोऽपि दाता परो ददातीति कुबुद्धिरेषा ।
अहं करोमीति वृथाभिमानः स्वकर्मसूत्रे ग्रथितो हि लोकः ॥

(जीवन में) सुख-दुःख किसी अन्य के दिये नहीं होते; कोई दूसरा मुजे सुख-दुःख देता है यह मानना व्यर्थ है । ‘मुजसे होता है’ यह मानना भी मिथ्याभिमान है । समस्त जीवन और सृष्टि स्वकर्म के सूत्र में बंधे हुए हैं ।

कर्म पर संस्कृत श्लोक

सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत् ।
सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृताः ॥

हे कौन्तेय ! दोषयुक्त होते हुए भी सहज कर्म का त्याग नहीं करना चाहिए; क्यों कि जैसे अग्नि धूंएँ से आवृत्त होता है वैसे हि हर कर्म किसी न किसी दोष से युक्त होता है ।

वैद्याः वदन्ति कफपित्तमरुद्विकारान् ज्योतिर्विदो ग्रहगतिं परिवर्तयन्ति ।
भूताभिषंग इति भूतविदो वदन्ति प्रारब्धकर्म बलवन्मुनयोः वदन्ति ॥

(पीडा होने पर) वैद्य कहते हैं वह कफ, पित्त और वायु का विकार है; ज्योतिषी कहते हैं वह ग्रहों की पीडा है; भूवा (बाबा) कहता है भूत का संचार हुआ है, पर ऋषि-मुनि कहते हैं प्रारब्ध कर्म बलवान है (और उसी का यह फल है) ।

अनुबन्धं क्षयं हिंसामनवेक्ष्य च पौरुषम् ।
मोहादारभ्यते कर्म यत्तत्तामसमुच्यते ॥

जो कर्म परिणाम, हानि, हिंसा, और सामर्थ्य को ध्यान में लिये बगैर, केवल अज्ञान की वजह से किया जाता है, वह तामसी कहा गया है ।

यत्तु कामेप्सुना कर्म साहङ्कारेण वा पुनः ।
क्रियते बहुलायासं तद्राजसमुदाहृतम् ॥

जो कर्म बहुत परिश्रम उठाकर किया जाता है, और उपर से भोगेच्छा से या अहंकार से किया जाता है, वह कर्म राजसी कहा गया है ।

अपहाय निजं कर्म कृष्णकृष्णोति वादिनः ।
ते हरेर्द्वेषिनः पापाः धर्मार्थ जन्म यध्धरेः ॥

जो लोग अपना कर्म छोडकर केवल कृष्ण कृष्ण बोलते रहते हैं, वे हरि के द्वेषी हैं ।

केचित् कुर्वन्ति कर्माणि कामरहतचेतसः ।
त्यजन्तः प्रकृयिदैवीर्यथाहं लोकसंग्रहम् ॥

जगत में विरल हि लोग ऐसे होते हैं, जो भगवान की माया से निर्मित विषयसंबंधी वासनाओं का त्याग करके मेरे समान केवल लोकसंग्रह के लिए कर्म करते रहेते हैं ।

Geeta shlok on karma in Hindi

नियतं सङ्गरहितमरागद्वेषतः कृतम् ।
अफलप्रेप्सुना कर्म यत्तत्सात्त्विकमुच्यते ॥

जो कर्म शास्त्रविधि से नियत किया हो, कर्तापन के अभिमान से रहित किया गया हो, और फलेच्छा बिना, राग-द्वेष रहित किया गया हो – वह कर्म सात्त्विक कहा गया है ।

रथस्यैकं चक्रं भुजगयमिताः सप्त तुरगाः निरालम्बो मार्गश्चरणरहितः सारथिरपि ।
रविर्गच्छत्यन्तं प्रतिदिनमपारस्य नभसः क्रियासिद्धिः सत्त्वे भवति महतां नोपकरणे ॥

सूर्य के रथ को एक ही पैया है, साँप की लगाम से संयमित किये हुए सात घोडे हैं, आलंबनरहित मार्ग है, बिना पैर का सारथि अरुण है; साधनों की इतनी मर्यादा होने पर भी सूर्य रोज सारे आकाश में घूमता है, क्यों कि महापुरुषों की कार्यसिद्धि, (व्यक्ति के) सत्त्व पर निर्भर करती है, न कि साधनों पर ।

ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा करोति यः ।
लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा ॥

जो आसक्तिरहित और ब्रह्मार्पण वृत्ति से कर्म करते हैं, वे पानी से अलिप्त रहनेवाले कमल की तरह पाप से अलिप्त रहते हैं ।

यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यं कार्यमेव तत् ।
यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम् ॥

यज्ञ, दान और तपरुपी कर्म त्याग करने योग्य नहि है, बल्कि ये तो अवश्य करने चाहिए; क्यों कि यज्ञ, दान, और तप – ये तीनों कर्म बुद्धिमान मनुष्य को पावन करनेवाले हैं ।

 

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Shweta Pratap

I am a defense geek

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