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दुर्जन पर संस्कृत श्लोक भाग-2
Sanskrit Shlokas on Durjan with Hindi Meaning

दुर्जन धूर्त दुष्टों पर संस्कृत श्लोक संस्कृत में खूब हैं इसलिए इसे यहाँ दो भागों में (पहला भाग यहाँ पढ़ें) दिया जा रहा है।  यदि अभी तक आपने पहला भाग नहीं पढ़ा है तो पहले दिए गए लिंक से पहला भाग पढ़ें

नीति से पगी संस्कृत की बातें यहाँ सरल हिंदी अनुवाद के साथ दिया गया है तथा आशा है आपको पसंद आएगा;

 

दुर्जनो नार्जवं याति सेव्यमानोऽपि नित्यशः ।
स्वेदनाभ्य़ंजनोपायैः श्र्वपुच्छमिव नामितम् ॥

जैसे कुत्ते की पूंछ स्वेदन, अंजन इत्यादि उपाय से सरल नहीं बनती, वैसे दुष्ट मानव हंमेशा सेवा करने के बावजुद सरल नहीं बनता ।

अनिष्टादिष्टलाभेऽपि न गतिर्जायते शुभा ।
यत्रास्ते विषसंसर्गोड्मृतमपि तत्र मृत्यवे ॥

अनिष्ट में से इष्ट लाभ होता हो तो फिर भी अच्छा फ़ल नहीं मिलता, जहाँ विषका संसर्ग हो वहाँ अमृत भी मृत्यु निपजाता है ।

दुर्जन दूषितमनसां पुंसां सुजनेऽप्यविश्र्वासः ।
बालः पायसदग्धो दध्यपि फूल्कृत्य भक्षयति ॥

दुर्जन से जिसका मन दूषित होता है एसा मानव सज्जन पर भी अविश्वास करता है । दूध से जला बालक दहीं भी फ़ूँक कर पीता है

न देवाय न धर्माय न बन्धुभ्यो न चार्थिने ।
दुर्जनेनार्जितं द्रव्यं भुज्यते राजतस्करैः ॥

दुर्जन को मिला हुआ धन देवकार्य में, धर्म में, सगे-संबंधीयों या याचक को देने में काम नहीं आता; उसका उपयोग तो राजा और चोर हि करते है ।

विपुलहदयाभियोग्ये खिध्यति काव्ये जडो न मौख्र्यै स्वे ।
निन्दति कज्चुकिकारं प्रायः शुष्कस्तनी नारी ॥

जड मानव, ह्रदय विपुल बनानेवाला काव्य पढकर खेद पाता है, लेकिन उसे अपनी मूर्खता पर खेद नहीं होता । ज़ादा करके शुष्क स्तनवाली नारी, कंचुकी बनानेवाले की निंदा करती है ।

सर्प क्रूरः खलः क्रूरः सर्पात् क्रूरतरः खलः ।
मन्त्रेण शाम्यते सर्पः न खलः शाम्यते कदा ॥

सर्प क्रूर है, दुष्ट भी क्रूर है । लेकिन सर्प से दुष्ट ज्यादा क्रूर है । सर्प तो मंत्रसे वश होता है, पर दुष्ट मानव कभी वश नहीं होता ।

खलः सर्षपमात्राणि परछिद्राणि पश्यति ।
आत्मनो बिल्वमात्राणि पश्यन् अपि न पश्यति ॥

दुष्ट मानव दूसरे का राई जितना दोष भी देखते हैं, लेकिन खुद के बिल्वफ़ल जितने दोष दिखनेके बावजूद उसे ध्यान पर नहीं लेते ।

पापं वर्धयते चिनोति कुमतिं कीर्त्यंगना नश्यति
धर्मं ध्वंसयते तनोति विपदं सम्पत्तिमुन्मर्दति ।
नीतिं हन्ति विनीतिमत्र कुरुते कोपं धुनीते शमम्
किं वा दुर्जन संगतिं न कुरुते लोकद्वयध्वंसिनी ॥

पाप को बढाती है, कुमति का संचार करती है, कीर्तिरुप अंगना का नाश करती है, धर्मका ध्वंस करती है, विपत्ति का विस्तार करती है, संपत्तिका मर्दन करती है, नीति को हरती है, विनीति को कोप कराती है, शांति को हिलाती है; दोनों लोक का नाश करनेवाली दुर्जन-संगति क्या नहीं करती ?

त्यकत्वा मौक्तिकसंहतिकरटिनो गृहणन्ति काकाः पलम्
त्यक्त्वा चन्दनमाश्रयन्ति कुथितं योनिक्षतं मक्षिकाः ।
हित्वान्नं विविधं मनोहररसं श्र्वानो मलं भुज्ज्ते
यद्वद् यांति गुणं विहाय सततं दोषं तथा दुर्जनाः ॥

जैसे कौए मोतीयों के समूह को छोडकर विष्टा लेते हैं, मख्खीयाँ चंदन छोडकर दुर्गंधयुक्त योनिक्षत का सहारा लेती है, भिन्न प्रकार के मनोहर रसवाला अन्न छोडकर कुत्ता मल खाता है, वैसे दुर्जन अच्छे गुण छोडकर दोष का सहारा लेते हैं ।

दुर्जनः परिहर्तव्यः

दुर्जस्नं सज्जनं कर्तुमुपायो न हि भूतले ।
अपानं शतधा धौतं न श्रेष्ठमिन्द्रियं भवेत् ॥

यह पृथ्वी पर दुर्जन को सज्जन बनाने का कोई उपाय नहीं है । अपान को सौ बार धोने परभी उसे श्रेष्ठ इंन्द्रिय नहीं बनायी जा सकती ।

विपुलहदयाभियोग्ये खिध्यति काव्ये जडो न मौख्र्यै स्वे ।
निन्दति कज्चुकिकारं प्रायः शुष्कस्तनी नारी ॥

जड मानव, ह्रदय विपुल बनानेवाला काव्य पढकर खेद पाता है, लेकिन उसे अपनी मूर्खता पर खेद नहीं होता । ज़ादा करके शुष्क स्तनवाली नारी, कंचुकी बनानेवाले की निंदा करती है ।

यथा परोपकारेषु नित्यं जागर्ति सज्जनः ।
तथा परापकारेषु जागर्ति सततं खलः ॥

जैसे सज्जन परोपकार करने में नित्य जाग्रत होता है, वैसे दुर्जन अपकार करने में हमेशा जाग्रत होता है ।

तक्षकस्य विषं दन्ते मक्षिकायाश्र्च मस्तके ।
वृश्र्चिकस्य विषं पृच्छे सर्वांगे दुर्जनस्य तत् ॥

सर्प का झहर दांत में, मक्खी का मस्तक में और बिच्छु का पूंछ में होता है । लेकिन दुर्जनका झहर तो उसके पूरे अंग में होता है ।

दुर्जनः स्वस्वभावेन परकार्य विनश्यति ।
नोदरतृप्तिमायाति मुषकः वस्त्रभक्षकः ॥

दुर्जन अपने स्वभाव से हि दूसरे के कर्य को हानि पहुँचाता है । वस्त्रभक्षक चूहा उदर तृप्ति के लिए वस्त्र नहीं काटता !

खलानां कण्टकानां च द्विविधैव प्रतिक्रिया ।
उपानन्मुखभंगो वा दूरतो वा विसर्जनम् ॥

दुष्ट मानव और कंटक को दूर करने के दो हि उपाय है, या तो जूते से मुख तोड दो, या तो दूर से हि भगा दो ।

कापुरुषः कुकुरश्र्च भोजनैकपरायणः ।
लालितः पार्श्र्चमायाति वारितः त च गच्छति ॥

कापुरुष और कुत्ता दोनों भोजन परायण होते है । प्यार करने से पास आते हैं और दूर करनेसे जाते नहीं ।

दुर्जनस्य विशिष्टत्वं परोपद्रवकारणम् ।
व्याघ्रस्य चोपवासेन पारणं पशुमारणम् ॥

दुर्जन कोई विशेष कार्य करे तो दूसरे के उपद्रव का कारण बनता है । शेर अगर उपवास करे तो उसके दूसरे दिन का खाना पशु की हत्या होती है ।

दुर्जनः प्रियवादी च नैतद्विश्र्चासकारणम् ।
मधु तिष्ठति जिह्याग्रे हदये तु हलाहलम् ॥

दुर्जन प्रियबोलनेवाला हो फिर भी विश्वास करने योग्य नहीं होता क्यों कि चाहे उसकी जबान पर भले हि मध हो, पर हृदय में तो हलाहल झहर हि होता है ।

Durjana Parihartavya

न विना परवादेन रमते दुर्जनो जनः ।
काकः सर्वरसान् भुंक्ते विनाऽमध्यं न तृप्यति ॥

लोगों की निंदा किये बिना दुर्जनों को आनंद नहीं आता । कौए को सब रस भुगतने के बावजुद गंदगी बिना तृप्ति नहीं होती ।

दुर्जनो दोषमादत्ते दुर्गन्धमिव सूकरः ।
सज्जनश्र्च गुणग्राही हंसः क्षीरमिवाम्भसः ॥

सूअर जैसे दुर्गंध को वैसे दुर्जन दोष को ग्रहण करता है । और हंस जैसे पानी में से दूध को वैसे सज्जन गुणको ग्रहण करता है ।

स्पृशन्नपि गजो हन्ति जिघ्रन्नपि भुजंगमः ।
हसन्नपि नृपो हन्ति मानयन् अपि दुर्जनः ॥

स्पर्श करने से हाथी, सुंघने से सर्प, और हसते हसते राजा (अन्य को) मार देता है । वैसे ही मान देनेके बावजुद दुर्जन मानव को मार देता है ।

दुर्जनः परिहर्तव्यः विध्ययालंकृतोऽपि सन् ।
मणिना भूषितः सर्पः किमसो न भयंकरः ॥

दुर्जन विद्या से अलंकृत हो फ़िर भी उसका त्याग करना चाहिए । मणि से भूषित सर्प क्या भयंकर नही होता?

उपकारोऽपि नीचानामपकारो हि जायते ।
पयः पानं भुजंगानां केवलं विषवर्धनम् ॥

नीच मानव पर किया उपकार भी अपकार बनता है । सर्प को पिलाया दूध केवल विष ही बढाता है ।

खलो न साधुतां याति सदिः संबोधितोपि सन् ।
सरित्पूरप्रपूर्णोऽपि क्षारो न मधुरायते ॥

अच्छे मानवों से संबोधित हुआ हो, फ़िर भी दुष्ट मानव साधु नहीं बनता ।
नदियों के पूर से भरपूर होने के बावजूद सागर मधुर नहीं बनता ।

मूर्खशिष्योपदेशेन दुष्टस्त्रीभरणेन च ।
असतां संप्रयोगेन पण्डितोप्यवसीदति ॥

मूर्ख शिष्य को उपदेश देने से, दुष्ट स्त्री का भरण पोषण करने से, और दुष्टके संयोग से पंडित भी नष्ट होता है ।

दुर्जन प्रथमं वन्दे सज्जनं तदनन्तरम् ।
मुखप्रक्षालनात्पूर्व गुदप्रक्षालनं यथा ॥

मैं दुर्जन को प्रथम वंदन करता हूँ, और बाद में सज्जन को । मुख धोने से पहले गुद्प्रक्षालन करना चाहिए ।

सर्पदुर्जनयो र्मध्ये वरं सर्पो न दुर्जनः ।
सर्पो दशति कालेन दुर्जनस्तु पदे पदे ॥

सर्प और दुर्जन इन दोनों में दुर्जन से साँप अच्छा क्यों कि सर्प तो समप आने पर हि काटता है, लेकिन दुर्जन तो हर कदम पर काटता है ।

 

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Shweta Pratap

I am a defense geek

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  • अत्यधिक अच्छे श्लोकों का संग्रह

    • उत्साहवर्धन हेतु बहुत बहुत धन्यवाद

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