मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है,परस्पर सहयोग मानव जीवन का एक आवश्यक एवं महत्वपूर्ण अंग है । प्राचीन काल से मानव में दो प्रवृत्तियां कार्य कर रही हैं,इनमें से एक है स्वार्थ साधन की तथा दूसरी है परमार्थ की । परमार्थ की भावना से किया गया कार्य परोपकार के अंतर्गत आता है । परोपकार से बड़ा दूसरा कोई कर्म नहीं जो मानव जीवन को उपयोगी और सार्थक बना सके ।
गोस्वामी तुलसीदास जी ने कहा है:
परहित सरिस धर्म नहीं भाई, पर पीड़ा सम नहिं अधमाई ।
तथा
परहित बसै जिनके मन माहीं, तिन्ह कहुं जग दुर्लभ कछु नाही ।
परोपकार की सबसे बड़ी शिक्षा हमें प्रकृति से मिलती है। प्रकृति के प्रत्येक कार्य में सदैव परोपकार की भावना निहित दिखाई पड़ती है। नदियां अपना जल स्वयं न पीकर दूसरों की प्यास को बुझाती हैं, वृक्ष अपने फलों को दूसरों के लिए अर्पण करते हैं, बादल पानी बरसा कर धरती की प्यास बुझाते हैं। गायें अपना दूध दूसरों में बांटती हैं। सूर्य तथा चन्द्रमा भी अपने प्रकाश से दूसरों सभा की ज़िन्दगी को रौशन बनाते हैं। इसी प्रकार सज्जन व्यक्तियों का जीवन परोपकार में ही लगा रहता है। इसी भाव को कबीर दास ने इस प्रकार प्रकट किया है-
वृक्ष कवहँ नहिं फल भखै, नदी न संचै नीर।
परमारथ के कारने साधुन धरा शरीर॥
यदि हम अपने प्राचीन इतिहास को याद करें तो हमें अनेक ऐसे उदाहरण मिलेंगे के परोपकार करने वाले लोगों ने अपनी धन-सम्पत्ति तो क्या अपने घर-द्वार, राजपाट और आवश्यकता पड़ने पर अपने शरीर तक अर्पित कर दिए। हम महर्षि दधीचि के उस अवदान को कैसे भुला सकते हैं जिन्होंने देवताओं की रक्षा के लिए अपने प्राण सहर्ष ही न्यौछावर कर दिए थे। दधीचि की हड्डियों से वज्र बनाया गया जिससे वृत्रासुर राक्षस का वध हुआ। राजा शिवि भी ऐसे ही परोपकारी हुए, उन्होंने एक कबूतर के प्राणों की रक्षा के लिए भूखे बाज को अपने शरीर का मांस काट-काट कर दे दिया था।
परोपकार दो शब्दों से मिलकर बना है – पर+उपकार , परोपकार का अर्थ होता है दूसरों का भला करना,सहायता करना। जब मनुष्य खुद की या ‘स्व’ की संकुचित सीमा से निकलकर दूसरों के या ‘पर’ के लिए अपने सर्वस्व का बलिदान दे देता है,उसे ही परोपकार कहा जाता है। परोपकार की भावना ही हम मनुष्यों को पशुओं से अलग करती है अन्यथा भोजन और नींद तो पशु भी मनुष्य की तरह ही लेते हैं।
किसी व्यक्ति की सेवा या उसे किसी भी प्रकार से मदद पहुँचाना, परोपकार है। यह गर्मी के मौसम में राहगीरों को मुफ्त्त में ठंडा पानी पिलाना,पक्षियों के लिए दाना-पानी रख देना , या किसी गरीब की बेटी के विवाह में अपना योगदान देना भी हो सकता है।
हम भी छोटे-छोटे कार्य करके परोपकार कर सकते हैं। भूखे को रोटी खिलाकर, भूले-भटके को राह बता कर,अशिक्षितों को शिक्षा देकर, अन्धे व्यक्ति को सड़क पार करा कर , प्यासे को पानी पिला कर, अबलाओं तथा कमजोरों की रक्षा करके,जानवरों का ध्यान रखकर ,आदि करके परोपकार किया जा सकता है।
मनुष्य का सर्वश्रेष्ठ धर्म परोपकार होता है। मनुष्य के पास विकसित दिमाग के साथ-साथ संवेदनशील ह्रदय भी होता है। मनुष्य दूसरों के दुःख को देखकर दुखी हो जाता है और उसके प्रति सहानुभूति पैदा हो जाती है। वह दूसरों के दुखों को दूर करने की कोशिश करता है तब वह परोपकारी कहलाता है।
कहते हैं की मनुष्य जीवन हमें इस लिये मिलता है ताकि हम दूसरों की मदद कर सकें। हमारा जन्म सार्थक तभी कहलाता है जब हम अपने बुद्धि, विवेक, कमाई या बल की सहायता से दूसरों की मदद करें। जरुरी नहीं की जिसके पास पैसे हो ,या वह अमीर हो वही दान दे सकता है, एक साधारण व्यक्ति भी किसी की मदद अपने बुद्धि के बल पर कर सकता है।
परोपकार का सीधा संबंध दया, करुणा और संवेदना से होता है। हर परोपकारी व्यक्ति करुणा से पिघलने की वजह से हर दुखी व्यक्ति की मदद करता है। परोपकार के जैसा न ही तो कोई धर्म है और न ही कोई पुण्य। जो व्यक्ति दूसरों को सुख देकर खुद दुखों को सहता है वास्तव में वही मनुष्य होता है। परोपकार को समाज में अधिक महत्व इसलिए दिया जाता है क्योंकि इससे मनुष्य की पहचान होती है।
आज के इस आधुनिक समय में मानव अपने भौतिक सुखों की ओर अग्रसर होता जा रहा है। इन भौतिक सुखों के आकर्षण ने मनुष्य को बुराई-भलाई की समझ से कोसों दूर कर दिया है। अब मनुष्य अपने स्वार्थ को पूरा करने के लिए काम करता है। आज के समय का मनुष्य कम खर्च करने और अधिक मिलने की इच्छा रखता है।
मनुष्य आज के समय में सभी को सिर्फ व्यवसाय की नजर से देखता है। आज सभी वही काम करते हैं जिससे खुद का भला हो वो चाहे दूसरों को कितना भी नुकसान क्यों न हो। आज लोग धोखे और बेईमानी से पैसा कमाते हैं और यश कमाने के लिए उसमें से कुछ धन तीर्थ स्थलों पर दान कर देते हैं। किन्तु यह परोपकार नहीं है।
अगर आपके पास कोई वास्तु या पैसे हैं ,तो आपको स्वयं को भाग्यशाली समझना चाहिए ,जिसकी आवश्यकता अन्य को भी है और उसे आपसे वह चीज मांगनी पड़ रही है। अगर हम अपनी ज़िन्दगी को परोपकार में खर्च करें तो हमें कभी किसी चीज़ की कमी नहीं होगी साथ ही लोगों की दुआएं भी हमारे लिए काम आएंगी ।
मानव की केवल कल्याण भावना ही भारतीय संस्कृति की पृष्ठभूमि में निहित होती है। यहाँ पर जो भी कार्य किये जाते थे वे बहुजन हिताय और सुखाय की नजरों के अंतर्गत किये जाते थे। इसी संस्कृति को भारत वर्ष की आदर्श संस्कृति माना जाता है।
इस संस्कृति की भावना ‘वसुधैव कटुम्बकम्’ के पवित्र उद्देश्य पर आधारित थी। मनुष्य अपने आप को दूसरों की परिस्थिति के अनुकूल ढाल लेता है। जहाँ पर एक साधारण व्यक्ति अपना पूरा जीवन अपना पेट भरने में लगा देता है वहीं पर एक परोपकारी व्यक्ति दूसरों की दुखों से रक्षा करने में ही अपना जीवन बिता देता है।
दूसरों का हित चाहने के लिए गाँधी जी ने गोली खायी थी, सुकृत ने जहर पिया था और ईसा मसीह सूली पर चढ़े थे। राजा रंतिदेव को चालीस दिन तक भूखे रहने के बाद जब भोजन मिला,उन्होंने वह भोजन शरण में आए भूखे अतिथि को दे दिया ।भगवान शिव ने समुद्र मंथन से निकले विष का पान कर लिया , दानवीर कर्ण ने कवच और कुण्डल याचक बने इन्द्र को दे डाला था ।किसी भी देश या राष्ट्र की उन्नति के लिए परोपकार सबसे बड़ा साधन माना जाता है।यह सभी अपने परोपकार और लोक-कल्याण की वजह से पूजा करने योग्य बन गये ।
परोपकारी मनुष्य किसी बदले की भावना अथवा प्राप्ति की आकांक्षा से किसी के हित में कार्य नहीं करता ,बल्कि इंसानियत के नाते दूसरों की भलाई करता है। “सर्वे भवंतु सुखिनः सर्वे संतु निरामया” के पीछे भी परोपकार की भावना ही है। परोपकार सहानुभूति का पर्याय है,यह सज्जनों की विभूति होती है। परोपकार आंतरिक सुख का अनुपम साधन है,जो हमें “स्व” की संकुचित भावना से ऊपर उठा कर “पर” के निमित्त बलिदान करने को प्रेरित करता है।
राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने परोपकार व परोपकारी की इस प्रकार व्याख्या की है-
मरा वही नहीं कि जो जिया न आपके लिए।
वही मनुष्य है कि जो, मरे मनुष्य के लिए॥
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