सनातन हिन्दू धर्म पर संस्कृत श्लोक हिंदी अर्थ सहित
Sanskrit Shlok on Sanatan Hindu Dharma
श्रूयतां धर्म सर्वस्वं श्रुत्वा चैव अनुवर्त्यताम्।
आत्मनः प्रतिकूलानि, परेषां न समाचरेत् ॥
धर्म का सर्वस्व क्या है, सुनो और सुनकर उस पर चलो ! अपने को जो अच्छा न लगे, वैसा आचरण दूसरे के साथ नही करना चाहिये।
धर्म एव हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षितः।
तस्माद्धर्मो न हन्तव्यो मा नो धर्मो हतोऽवधीत् ॥
मरा हुआ धर्म मारने वाले का नाश, और रक्षित धर्म रक्षक की रक्षा करता है। इसलिए धर्म का हनन कभी न करना, इस डर से कि मारा हुआ धर्म कभी हमको न मार डाले।
सुखार्थं सर्वभूतानां मताः सर्वाः प्रवृत्तयः ।
सुखं नास्ति विना धर्मं तस्मात् धर्मपरो भव ॥
सब प्राणियों की प्रवृत्ति सुख के लिए होती है, (और) बिना धर्म के सुख मिलता नही । इस लिए, तू धर्मपरायण बन ।
तर्कविहीनो वैद्यः लक्षण हीनश्च पण्डितो लोके ।
भावविहीनो धर्मो नूनं हस्यन्ते त्रीण्यपि ॥
तर्क विहीन वैद्य, लक्षण विहीन पंडित, और भाव रहित धर्म – ये अवश्य ही जगत में हंसी के पात्र बनते हैं ।
अस्थिरं जीवितं लोके ह्यस्थिरे धनयौवने ।
अस्थिराः पुत्रदाराश्च धर्मः कीर्तिर्द्वयं स्थिरम् ॥
इस अस्थिर जीवन/संसार में धन, यौवन, पुत्र-पत्नी इत्यादि सब अस्थिर है । केवल धर्म, और कीर्ति ये दो हि बातें स्थिर है ।
स जीवति गुणा यस्य धर्मो यस्य जीवति ।
गुणधर्मविहीनो यो निष्फलं तस्य जीवितम् ॥
जो गुणवान है, धार्मिक है वही जीते हैं (या “जीये” कहे जाते हैं) । जो गुण और धर्म से रहित है उसका जीवन निष्फल है ।
प्रामाण्यबुद्धिर्वेदेषु साधनानामनेकता ।
उपास्यानामनियमः एतद् धर्मस्य लक्षणम् ॥
वेदों में प्रामाण्यबुद्धि, साधना के स्वरुप में विविधता, और उपास्यरुप संबंध में नियमन नहीं – ये हि धर्म के लक्षण हैं ।
अथाहिंसा क्षमा सत्यं ह्रीश्रद्धेन्द्रिय संयमाः ।
दानमिज्या तपो ध्यानं दशकं धर्म साधनम् ॥
अहिंसा, क्षमा, सत्य, लज्जा, श्रद्धा, इंद्रियसंयम, दान, यज्ञ, तप और ध्यान – ये दस धर्म के साधन है ।
धर्मः कल्पतरुः मणिः विषहरः रत्नं च चिन्तामणिः
#धर्मः कामदुधा सदा सुखकरी संजीवनी चौषधीः ।
धर्मः कामघटः च कल्पलतिका विद्याकलानां खनिः
प्रेम्णैनं परमेण पालय ह्रदा नो चेत् वृथा जीवनम् ॥
धर्म कल्पतरु, विषहर मणि, चिंतामणि रत्न है । धर्म सदा सुख देनेवाली कामधेनु है, और संजीवनी औषधि है । धर्म कामघट, कल्पलता, विद्या और कला का खजाना है । इस लिए, तूं उस धर्म का प्रेम और आनंद से पालन कर, वर्ना तेरा जीवन व्यर्थ है ।
Sanskrit Shlokas on Religion with Hindi meaning
अध्रुवेण शरीरेण प्रतिक्षण विनाशिना ।
ध्रुवं यो नार्जयेत् धर्मं स शोच्यः मूढचेतनः ॥
प्रतिक्षण नष्ट होनेवाले, अनिश्चित शरीर के मुकाबले, निश्चित ऐसे धर्म को जो प्राप्त नहि करता, वह मूर्ख शोक करने योग्य है ।
पूर्वे वयसि तत्कुर्याधेन वृद्धः सुखं वसेत् ।
यावज्जीवेन तत्कुर्याद्येनामुत्रसुखं वसेत् ॥
यौवन में ऐसा करना चाहिए जिससे बुढ़ापा सुख से कटे। यह जीवन ऐसे जीना जिससे परलोक (या दूसरे जन्म) में चैन मिले ।
अस्थिरं जीवितं लोके ह्यस्थिरे धनयौवने ।
अस्थिराः पुत्रदाराश्च धर्मः कीर्ति र्द्वयं स्थिरम् ॥
इस जगत में धन, जीवन, यौवन अस्थिर हैं; पुत्र और स्त्री भी अस्थिर हैं । केवल धर्म और कीर्ति (ये दो हि) स्थिर है ।
उत्थायोत्थाय बोद्धव्यं किमद्य सुकृतं कृतम् ।
आयुषः खण्डमादाय रविरस्तं गमिष्यति ॥
रोज उठकर “आज क्या सुकृत्य किया” यह जान लेना चाहिए, क्यों कि सूर्य (हररोज) आयुष्य का छोटा तुकडा लेकर अस्त होता है ।
अजरामरवत्प्राज्ञो विद्यामर्थं च चिन्तयेत् ।
गृहीत इव केशेषु मृत्युना धर्ममाचरेत् ॥
बूढापा और मृत्यु नहीं आयेंगे ऐसा समजकर विद्या और धन का चिंतन करना चाहिए । पर मृत्यु ने हमें बाल से जकड रखा है, ऐसा समजकर धर्म का आचरण करना चाहिए ।
जीवन्तं मृतवन्मन्ये देहिनं धर्मवर्जितम् ।
मृतो धर्मेण संयुक्तो दीर्घजीवी न संशयः ॥
धर्महीन मनुष्य को जिंदा होने के बावजुद मैं मृत समजता हूँ । धर्मयुक्त इन्सान मर कर भी दीर्घायु रहेता है उस में संदेह नहीं ।
अनित्यानि शरीराणि विभवो नैव शाश्वतः ।
नित्य संनिहितो मृत्युः कर्तव्यो धर्मसङ्ग्रहः ॥
शरीर अनित्य है; धन भी कायमी नहि है; और मृत्यु निश्चित है, इस लिए धर्मसंग्रह करना चाहिए ।
धर्म रक्षा श्लोक | Sanskrit Shlok on Hindu Dharm
सकलापि कला कलावतां विकला धर्मकलां विना खलु ।
सकले नयने वृथा यथा तनुभाजां कनीनिकां विना ॥
जैसे इन्सान की आँखें कीकी के बिना निस्तेज है, वैसे हि धर्म की कला के बिना सभी कला व्यर्थ है ।
मृतं शरीरमुत्सृज्य काष्ठलोष्ठसमं क्षितौ ।
विमुखा बान्धवा यान्ति धर्मस्तमनुगच्छति ॥
मृत शरीर को छोड़कर जैसे लकड़ी के टुकड़े चले जाते हैं, वैसे संबंधी भी मुँह फेरकर चले जाते हैं । केवल धर्म ही मनुष्य के पीछे जाता है ।
आहार निद्रा भय मैथुनं च सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणाम् ।
धर्मो हि तेषामधिको विशेष: धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः ॥
आहार, निद्रा, भय और मैथुन – ये तो इन्सान और पशु में समान है । इन्सान में विशेष केवल धर्म है, अर्थात् बिना धर्म के लोग पशुतुल्य है ।
धर्मस्य फलमिच्छन्ति धर्मं नेच्छन्ति मानवाः ।
फलं पापस्य नेच्छन्ति पापं कुर्वन्ति सादराः ॥
लोगों को धर्म का फल चाहिए, पर धर्म का आचरण नहि ! और पाप का फल नहि चाहिए, पर गर्व से पापाचरण करना है !
Slokas on dharma in Sanskrit
सत्येनोत्पद्यते धर्मो दयादानेन वर्धते ।
क्षमायां स्थाप्यते धर्मो क्रोधलोभा द्विनश्यति ॥
धर्म सत्य से उत्पन्न होता है, दया और दान से बढता है, क्षमा से स्थिर होता है, और क्रोध एवं लोभ से नष्ट होता है ।
धर्मो मातेव पुष्णानि धर्मः पाति पितेव च ।
धर्मः सखेव प्रीणाति धर्मः स्निह्यति बन्धुवत् ॥
धर्म माता की तरह हमें पुष्ट करता है, पिता की तरह हमारा रक्षण करता है, मित्र की तरह खुशी देता है, और सम्बन्धियों की भाँति स्नेह देता है ।
अन्यस्थाने कृतं पापं धर्मस्थाने विमुच्यते ।
धर्मस्थाने कृतं पापं वज्रलेपो भविष्यति ॥
अन्य जगहों पे किये हुए पापों से धर्मस्थान में मुक्ति मिलती है, पर धर्मस्थान में किया हुआ पाप वज्रलेप बनता है ।
न क्लेशेन विना द्रव्यं विना द्रव्येण न क्रिया ।
क्रियाहीने न धर्मः स्यात् धर्महीने कुतः सुखम् ॥
क्लेश बिना द्रव्य नहि, द्रव्य बिना क्रिया नहि, क्रिया बिना धर्म संभव नहि; और धर्म के बिना सुख कैसे हो सकता है ? (अर्थात् क्लेशरहित तो धर्म और सुख भी नहि मिल सकते !)
धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौच मिन्द्रियनिग्रहः ।
धी र्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्म लक्षणम् ॥
धारणा शक्ति, क्षमा, दम, अस्तेय (चोरी न करना), शौच, इन्द्रियनिग्रह, बुद्धि, विद्या, सत्य, अक्रोध – ये दस धर्म के लक्षण हैं ।