1625 में बांसी राज और सतासी राज के राजाओं द्वारा क्रमशः गोरखपुर और मगहर पर एक साथ हमला किया गया था। यह प्रयास सफल रहा और मुसलमानों को क्षेत्र से बाहर निकाल दिया गया। राजपूत पुनः स्वतंत्रत हो गए और लगभग सभी स्थानीय सरदारों ने श्रद्धांजलि देना बंद कर दिया। लम्बे समयतक मुगलों द्वारा इस अपमान का बदला लेने के लिए कोई कदम नहीं उठाया गया परन्तु 1658 में औरंगजेब के गद्दी पर बैठते ही हिन्दू समाज के प्रति उसके द्वेष और कट्टरवाद के चलते पुनः देश के इस हिस्से को अधीनता में लाने के उपाय किए गए।
लगभग 1680 में काजी खलील-उर-रहमान को गोरखपुर का चकलादार नियुक्त किया गया था, और उसने अयोध्या से एक बड़ी सेना लेकर क्षेत्रीय राजाओं को आधीन करने के लिए आगे बढ़ा। उसकी सेना ने बांसी राज के राजा की सेना की जगह मगहर पर कब्ज़ा कर लिया, जहां उन्होंने एक सैन्य चौकी छोड़ दी, और फिर सतासी राज के श्री रुदल सिंह को गोरखपुर से निष्कासित कर दिया, जहां उसने एक स्थायी सैन्य निवास के लिए बसंत सिंह के पुराने किले का पुनर्निर्माण किया।
सरनेत (श्रीनेत) सरदार ने गोरखपुर से निष्कासित होने के बाद सिलहट परगना गए और वहां रूद्रपुर शहर की स्थापना की। खलील-उर-रहमान ने राप्ती के दाहिने किनारे के पास बस्ती में खलीलाबाद (वर्तमान का संतकबीरनगर जनपद मुख्यालय) का निर्माण किया और अयोध्या से गोरखपुर तक सड़क बनवाई, जो वर्तमान में राजमार्ग है। जबकि वह कुछ नियमितता के साथ राजस्व एकत्र करने में सफल रहा। उस समय से बाद से मुसलमानों ने कभी भी गोरखपुर पर अपनी पकड़ ढीली नहीं की, बाद के स्थान के फौजदार के कार्यालय को अवध के सूबेदार के साथ जोड़ दिया गया।
उपरोक्त घटना ब्रिटिश गजेटियर गोरखपुर के इतिहास के पेज 181 & 182 पर वर्णित है। हमें अपने बांसी राज एवं सतासी राज के राजाओं एवं जनता के प्रति आभार व्यक्त करना चाहिए जिन्होंने संघर्ष और प्राणोत्सर्ग किया। विस्थापित हुए परन्तु अपने शौर्य एवं संस्कृति से विमुख न हुए।
लेखक- शिवेश प्रताप सिंह (Mob: 8750091725)
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