Best Shayari Collection | बेहतरीन शायरी

100 दर्द ए तन्हाई अकेलेपन की बेहतरीन शायरी | 100 Best Tanhai Shayari – 2

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100 दर्द ए तन्हाई अकेलेपन की बेहतरीन शायरी

ज़रा देर बैठे थे तन्हाई में
तिरी याद आँखें दुखाने लगी

अब इस घर की आबादी मेहमानों पर है
कोई आ जाए तो वक़्त गुज़र जाता है

कुछ तो तन्हाई की रातों में सहारा होता
तुम न होते न सही ज़िक्र तुम्हारा होता

भीड़ के ख़ौफ़ से फिर घर की तरफ़ लौट आया
घर से जब शहर में तन्हाई के डर से निकला

भीड़ तन्हाइयों का मेला है
आदमी आदमी अकेला है

दर्द ए तन्हाई शायरी

दिल दबा जाता है कितना आज ग़म के बार से
कैसी तन्हाई टपकती है दर ओ दीवार से

हिचकियाँ रात दर्द तन्हाई
आ भी जाओ तसल्लियाँ दे दो

शहर में किस से सुख़न रखिए किधर को चलिए
इतनी तन्हाई तो घर में भी है घर को चलिए

मकाँ है क़ब्र जिसे लोग ख़ुद बनाते हैं
मैं अपने घर में हूँ या मैं किसी मज़ार में हूँ

तुम से मिले तो ख़ुद से ज़ियादा
तुम को अकेला पाया हम ने

अकेले तन्हा शायरी

किसी हालत में भी तन्हा नहीं होने देती
है यही एक ख़राबी मिरी तन्हाई की

बना रक्खी हैं दीवारों पे तस्वीरें परिंदों की
वगर्ना हम तो अपने घर की वीरानी से मर जाएँ

मैं सोते सोते कई बार चौंक चौंक पड़ा
तमाम रात तिरे पहलुओं से आँच आई

किस क़दर बद-नामियाँ हैं मेरे साथ
क्या बताऊँ किस क़दर तन्हा हूँ मैं

जम्अ करती है मुझे रात बहुत मुश्किल से
सुब्ह को घर से निकलते ही बिखरने के लिए

ईद का दिन है सो कमरे में पड़ा हूँ ‘असलम’
अपने दरवाज़े को बाहर से मुक़फ़्फ़ल कर के

दर-ओ-दीवार इतने अजनबी क्यूँ लग रहे हैं
ख़ुद अपने घर में आख़िर इतना डर क्यूँ लग रहा है

हम अपनी धूप में बैठे हैं ‘मुश्ताक़’
हमारे साथ है साया हमारा

तन्हाई शायरी 2 लाइन

तेरे जल्वों ने मुझे घेर लिया है ऐ दोस्त
अब तो तन्हाई के लम्हे भी हसीं लगते हैं

काव काव-ए-सख़्त-जानी हाए-तन्हाई न पूछ
सुब्ह करना शाम का लाना है जू-ए-शीर का

तन्हाई के लम्हात का एहसास हुआ है
जब तारों भरी रात का एहसास हुआ है

दरिया की वुसअतों से उसे नापते नहीं
तन्हाई कितनी गहरी है इक जाम भर के देख

यादों की महफ़िल में खो कर
दिल अपना तन्हा तन्हा है

वो नहीं है न सही तर्क-ए-तमन्ना न करो
दिल अकेला है इसे और अकेला न करो

ख़मोशी के हैं आँगन और सन्नाटे की दीवारें
ये कैसे लोग हैं जिन को घरों से डर नहीं लगता

कहाँ का वस्ल तन्हाई ने शायद भेस बदला है
तिरे दम भर के मिल जाने को हम भी क्या समझते हैं

कोई भी घर में समझता न था मिरे दुख सुख
एक अजनबी की तरह मैं ख़ुद अपने घर में था

अकेलापन शायरी

है आदमी बजाए ख़ुद इक महशर-ए-ख़याल
हम अंजुमन समझते हैं ख़ल्वत ही क्यूँ न हो

कमरे में मज़े की रौशनी हो
अच्छी सी कोई किताब देखूँ

मैं तो तन्हा था मगर तुझ को भी तन्हा देखा
अपनी तस्वीर के पीछे तिरा चेहरा देखा

ये किस मक़ाम पे लाई है मेरी तन्हाई
कि मुझ से आज कोई बद-गुमाँ नहीं होता

इक सफ़ीना है तिरी याद अगर
इक समुंदर है मिरी तन्हाई

मैं अपने साथ रहता हूँ हमेशा
अकेला हूँ मगर तन्हा नहीं हूँ

 

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Shivesh Pratap

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