सत्यं तपो ज्ञानमहिंसता च विद्वत्प्रणामं च सुशीलता च ।
एतानि यो धारयति स विद्वान् न केवलं यः पठते स विद्वान् ॥
सत्य, तप, ज्ञान, अहिंसा, विद्वानों को प्रणाम, (और) सुशीलता – इन गुणों को जो धारण करता है, वह विद्वान और नहीं कि जो केवल अभ्यास करता है वह ।
निषेवते प्रशस्तानि निन्दितानि न सेवते ।
अनास्तिकः श्रद्धानः एतत् पण्डितलक्षणम् ॥
सत्पुरुषों की सेवा, निंदितों का त्याग, अनास्तिक होना, (और) श्रद्धावान होना – ये पंडित के लक्षण हैं ।
रत्नैर्महार्हैस्तुतुषुर्न देवाः न भेजिरे भीमविषेण भीतिं ।
सुधां विना न प्रययुर्विरामम् न निश्चितार्थाद्विरमन्ति धीराः ॥
अति मूल्यवान रत्नों के ढेर मिलने पर देव संतुष्ट न हुए, या भयंकर विष निकलने पर वे डरे नहीं; अमृत न मिलने तक वे रुके नहीं (डँटे रहे) । उसी तरह, धीर इन्सान निश्चित किये कामों में से पीछे नहीं हटते ।
शुश्रूषा श्रवणं चैव ग्रहणं धारणां तथा ।
ऊहापोहोऽर्थ विज्ञानं तत्त्वज्ञानं च धीगुणाः ॥
शुश्रूषा, श्रवण, ग्रहण, धारण, चिंतन, उहापोह, अर्थविज्ञान, और तत्त्वज्ञान – ये बुद्धि के गुण हैं ।
देशाटनं पण्डित मित्रता च वाराङ्गना राजसभा प्रवेशः ।
अनेकशास्त्रार्थ विलोकनं च चातुर्य मूलानि भवन्ति पञ्च ॥
देशाटन, बुद्धिमान से मैत्री, वारांगना, राजसभा में प्रवेश, और शास्त्रों का परिशीलन – ये पाँच चतुराई के मूल है ।
स्थानभ्रष्टा न शोभन्ते दन्ताः केसा नखा नराः ।
इति सञ्चिन्त्य मतिमान् स्वस्थानं न परित्यजेत् ॥
दांत, बाल, नाखून, और नर – ये यदि स्थानभ्रष्ट हो तो शोभा नहीं देते; ऐसा समजकर, मतिमान इन्सान ने स्वस्थान का त्याग नहीं करना चाहिए ।
यस्तु सञ्चरते देशान् यस्तु सेवेत पण्डितान् ।
तस्य विस्तारिता बुद्धिः तैल बिन्दु रिवाम्भसि ॥
जो देशों में घूमता है, जो पंडितों की सेवा करता है, उसकी बुद्धि पानी में तेल के बिंदुवत् विस्तृत होती है ।
यो न सञ्चरते देशान् यो न सेवेत पण्डितान् ।
तस्य सङ्कुचिता बुद्धि र्धुतबिन्दु रिवाम्भसि ॥
जो देशों में घूमता नहीं, जो पंडितों की सेवा करता नहीं, उसकी बुद्धि पानी में घी के बिंदुवत् संकुचित रहती है ।
परोपदेश पाण्डित्ये शिष्टाः सर्वे भवन्ति वै ।
विस्मरन्ती ह शिष्टत्वं स्वकार्ये समुपस्थिते ॥
दूसरे को उपदेश देते वक्त सब शयाने बन जाते हैं; पर स्वयं कार्य करने की बारी आती है, तब पाण्डित्य भूल जाते हैं ।
परोपदेशे पाण्डित्यं सर्वेषां सुकरं नृणाम् ।
धर्मे स्वीयमनुष्ठानं कस्यचित्तु महात्मनः ॥
दूसरों को उपदेश देने में पांडित्य बताना इन्सान के लिए आसान है; पर उसके मुताबिक खुद का आचरण तो किसी महात्मा का हि होता है ।
गन्धः सुवर्णे फलमिक्षुदण्डे नाकारि पुष्पं खलु चन्दनेषु ।
विद्वान् धनाढ्यो न तु दीर्घजीवी धातुः पुरा कोऽपि न बुद्धिदोऽभूत ॥
सोने में सुगंध, गन्ने को फल और चन्दन वृक्ष को फूल होते नहीं है । वैसे ही, विद्वान कभी धनवान और दीर्घजीवी नहीं होता है । इस विषय में ब्रह्मदेव को दिमाग देनेवाला पूर्व कभी मिला नहीं है ।
विद्वानेवोपदेष्टव्यो नाविद्वांस्तु कदाचन ।
वानरानुपदिश्याथ स्थानभ्रष्टा ययुः खगाः ॥
विद्वान (समजदार) को ही उपदेश करना चाहिए, नहीं कि अविद्वान को । (ध्यान में रहे कि) बंदरो को उपदेश करके पंछी स्थानभ्रष्ट हो गये ।
स्थानभ्रष्टा न शोभन्ते दन्ताः केशा नखा नराः ।
इति संचिन्त्य मतिमान्न स्वस्थानं न परित्यजेत् ॥
दांत, बाल, नाखुन और इन्सान, ये चार स्थानभ्रष्ट होने पर अच्छे नहीं लगते । यह समजकर, बुद्धिमान मनुष्य ने अपना (उचित) स्थान छोडना नहीं ।
यस्य नास्ति स्वयं प्रज्ञा शास्त्रं तस्य करोति किम् ।
लोचनाभ्यां विहीनस्य दर्पणः किं करिष्यति ॥
जिसे स्वयं की प्रज्ञा (तेज बुद्धि) नहीं उसे शास्त्र किस काम का ? अंधे मनुष्य को दर्पण किस काम का ?
को देशः कानि मित्राणि-कःकालःकौ व्ययागमौ ।
कश्चाहं का च मे शक्ति-रितिचिन्त्यं मुहुर्मुहु ॥
(मेरा) देश कौन-सा, (मेरे) मित्र कौन, काल कौन-सा, आवक-खर्च कितना, मैं कौन, मेरी शक्ति कितनी, ये समजदार इन्सान ने हर घडी (बार बार) सोचना चाहिए ।
चलत्येकेन पादेन तिष्ठत्यन्येन पण्डितः ।
नापरीक्ष्य परं स्थानं पूर्वमायतनं त्यजेत् ॥
बुद्धिमान मनुष्य एक पैर से चलता है और दूसरे पैर से खडा रहता है (आधार लेता है) । अर्थात् दूसरा स्थान जाने और पाये बगैर पूर्वस्थान छोडना नहीं ।
अर्थनाशं मनस्तापं गृहे दुश्चरितानि च ।
वञ्चनं चापमानं च मतिमान्न प्रकाशयेत् ॥
संपत्ति की हानि, मन का संताप, घर के दूषण और अपमानजनक वचन, इन बातों को बुद्धिमान प्रकाश में नहीं लाता ।
बुद्धिर्यस्य बलं तस्य निर्बुद्धेस्तु कुतो बलम् ।
पश्य सिंहो मदोन्मत्तः शशकेन निपातितः ॥
जिसके पास बुद्धि है, उसके पास बल है । पर जिसके पास बुद्धि नहीं उसके पास बल कहाँ ? देखो, बलवान शेर को (चतुर) लोमडी ने कैसे मार डाला (था) !
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