विनय पर संस्कृत श्लोक | Sanskrit Shlokas for Vinay with Hindi Meaning
योगनिरोधात् भवसंततिक्षयः सन्ततिक्षयान्मोक्षः ।
तस्मात् कल्याणानां सर्वेषां भाजनं विनयः ॥
योगनिरोध से भवसंतति का क्षय होता है (याने चौंराशी लाख यौनियों में भटकने से बच जाते हैं) और संततिक्षय से मोक्ष मिलता है – इस लिए विनय सब कल्याण का भाजन (स्थान) है ।
शरीरं चैव वाचं च बुद्धिन्द्रिय मनांसि च ।
नियम्य प्राञ्जलिः तिष्ठेत् वीक्षमाणो गुरोर्मुखम् ॥
शरीर, वाणी, बुद्धि, इंद्रिय और मन को संयम में रखकर, हाथ जोडकर गुरु के सन्मुख देखना चाहिए ।
नीचं शय्यासनं चास्य सर्वदा गुरुसंनिधौ ।
गुरोस्तु चक्षुर्विषये न यथेष्टासनो भवेत् ॥
गुरु के पास हमेशा उनसे छोटे आसन पे बैठना चाहिए । गुरु आते हुए दिखे, तब अपनी मनमानी से नहि बैठना चाहिए ।
विनय फलं शुश्रूषा गुरुशुश्रूषाफलं श्रुत ज्ञानम् ।
ज्ञानस्य फलं विरतिः विरतिफलं चाश्रव निरोधः ॥
विनय का फल सेवा है, गुरुसेवा का फल ज्ञान है, ज्ञान का फल विरक्ति है, और विरक्ति का फल आश्रवनिरोध है ।
आत्मानं भावयेन्नित्यं ज्ञानेन विनयेन च ।
मा पुन र्म्रियमाणस्य पश्चात्तापो भविष्यति ॥
ज्ञान से और विनय से आत्मा का नित्य चिंतन करना, कि जिससे मरते वक्त पश्चाताप न हो ।
यथा नमन्ति पाथोभिः पाथोदाः फलदाः फलैः ।
नमन्ति विनयेनैव तद्वदुत्तमपूरुषाः ॥
जैसे फल देनेवाले वृक्ष फल से झुकते हैं, वैसे उत्तम पुरुष विनय से झुकते हैं ।
विनयायत्ताश्च गुणाः सर्वे विनयश्च मार्दवायत्तः ।
यस्मिन् मार्दवमखिलं स सर्वगुणभाक्त्वमाप्नोति ॥
सब गुण विनय के आधीन है, और विनय कोमलता को आधीन है; याने जिसमें मार्दव हो, वह सब गुणों को प्राप्त करता है ।
श्रुतशीलमूलनिकषो विनीतविनयो यथा नरो भाति ।
न तथा सुमहार्घैरपि वस्राभरणैरलङ्क तो भाति ॥
जितनी श्रुत और शील की कसौटी रुप संस्कार और विनय से मनुष्य की शोभा होती है, उतनी मूल्यवान वस्त्र और अलंकारों से मंडित होकर भी नहि होती ।
विनयः कारणं मुक्तेः विनयः कारणं श्रियः ।
विनयः कारणं प्रीतेः विनयः कारणं मतेः ॥
विनय मुक्ति का, संपत्ति का, प्रीति का और मति का कारण है ।
का सम्पदविनीतस्य का मैत्री चलचेतसः ।
का तपस्या विशीलस्य का कीर्तिः कोपवर्तिनः ॥
असंस्कारी को संपद कहाँ से ? चंचल चित्तवाले को मैत्री कहाँ से ? शील बिना तपस्या कहाँ से ? क्रोधी को कीर्ति कहाँ से ?
नमन्ति फलिताः वृक्षाः नमन्ति विबुधाः जनाः ।
शुष्ककाष्ठं च मूर्खाश्च भज्यन्ते न नमन्ति च ॥
फल लगे हुए वृक्ष और शयाने लोग झुकते हैं; पर सूखा लकडा और मूर्ख लोग तूटेंगे, पर झूकेंगे नहि ।
नमोभूषा पूषा कमलवनभूषा मधुकरो वचोभूषा सत्यं वरविभवभूषा वितरणम् ।
मनोभूषा मैत्री मधुसमयभूषा मनसिजः सदो भूषा सूक्तिः सकलगुणभूषा च विनयः ॥
सूर्य आकाश का भूषण है, भौंरा कमलवन का, सत्य वाणी का, दान श्रेष्ठ वैभव का, मैत्री मन का, कामदेव वसंत का, और सद्वचन सभा का भूषण है । पर विनय तो सब गुणों का भूषण है ।
सम्भ्रमः स्नेहमाख्याति वपुराख्याति भोजनम् ।
विनयो वंशमाख्याति देशमाख्याति भाषितम् ॥
व्याकुलता स्नेह का, शरीर भोजन का, विनय वंश का, और बोलना देश का सूचन करता है ।
विद्याविनयोपेतो हरति न चेतांसि कस्य मनुजस्य ।
काञ्चनमणिसंयोगो नो जनयति कस्य लोचनानन्दम् ॥
विद्या और विनय (दोनों के संयोग) से युक्त मनुष्य किसका मन नहि हरता ? सोने और मणि का संयोग किसकी आँखों को आनंद नहि देता ?
विनश्यन्ति समस्तानि व्रतानि विनयं विना ।
सरोरुहाणि तिष्ठन्ति सलिलेन विना कुतः ॥
विनय बिना सब व्रत नष्ट होते हैं – पानी बिना कमल कैसे टिक सकते हैं ?
आकारैणैव चतुराः तर्कयन्ति परेङ्गितम् ।
गर्भस्थं केतकीपुष्पमामोदेनेव षट्पदाः ॥
चतुर लोग आकार से हि दूसरे के मन की बात परख लेता है । (देखो) भौंरे केतकी पुष्प में रही हुई कली को सुगंध से हि परख लेते हैं ।
आकारैरिङ्गितैः गत्या चेष्टया भाषितेन च ।
नेत्र वक्त्र विकारैश्च गृह्यतेऽन्तर्गतं मनः ॥
आकार से, संकेत से, गति से, चेष्टा से, बोलने से, और आँख व मुख के फेरचिह्नों से, इन्सान के दिल में क्या है वह जाना जा सकता है ।
छायां प्रकृर्वन्ति नमन्ति पुष्पैः फलानि यच्छन्ति तटद्रुमाः ये ।
उन्मूल्य तानेव नदी प्रयाति तरङ्गिणां क्व प्रतिपन्नमस्ति ॥
तट पर के जो वृक्ष छाया देते हैं, पुष्पों से झुकते हैं और फल देते हैं; उन्हीं को उखेडकर नदी जाती है । तरंगी (अविवेकी) मनुष्य को योग्य और अयोग्य कहाँ होता है ?
विपत्तिष्वव्यथो दक्षो नित्यमुत्थानवान्नरः ।
अप्रमत्तौ विनीतात्मा नित्यं भद्राणि पश्यति ॥
विपत्ति में व्यथारहित, दक्ष और हंमेशा उन्नतिशील, अप्रमत्त, और संस्कारी इन्सान का सदा कल्याण होता है ।