आदि काल से ही चरित्र पूजन का बहुत महत्व रहा है | सभी प्राणियों को गणेश, सरस्वती, रवि, शुक, और बृहस्पति, इन पाँचों का स्मरण करके हि वेदपठन में प्रवृत्त होना चाहिए । अर्थात लंका जीतनी थी, पैर से चलकर सागर पार करना था, पुलस्त्य ऋषि के पुत्र (रावण) से शत्रुता थी, रणांगण में (केवल) वानर लोग मदत करनेवाले थे, फिर भी अकेले रामचंद्रजी ने राक्षसों का सारा कुल खत्म कर दिया । महान लोगों को काम में सिद्धि सत्त्व से (आत्मबल से) मिलती है, न कि साधनों से ।
श्रुति र्विभिन्ना स्मृतयोऽपि भिन्नाः
नैको मुनि र्यस्य वचः प्रमाणम् ।
धर्मस्य तत्त्वं निहितं गुहायाम्
महाजनो येन गतः स पन्थाः ॥
श्रुति में अलग अलग कहा गया है; स्मृतियाँ भी भिन्न भिन्न कहती हैं; कोई एक ऐसा मुनि नहि केवल जिनका वचन प्रमाण माना जा सके; (और) धर्म का तत्त्व तो गूढ है; इस लिए महापुरुष जिस मार्ग से गये हों, वही मार्ग लेना योग्य है ।
भृगुं पुलस्त्यं पुलहं क्रतुमङ्ग़िरसं तथा ।
मरीचिं दक्षमत्रिं च वसिष्ठं चैव मानसम् ॥
भृगु, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, अंगिरस, मरीचि, दक्ष, अत्रि, और वसिष्ठ – ये ब्रह्मा के नौ मानस पुत्र हैं ।
अर्जुनः फाल्गुनो जिष्णु र्किरीटी श्वेतवाहनः ।
बीभत्सु र्विजयः कृष्णः सव्यसाची धनञ्जयः ॥
अर्जुन, फाल्गुन, जिष्णु, किरीटी, श्वेतवाहन, बीभत्स, विजय, कृष्ण, सव्यसाची, धनंजय – (ये अर्जुन के नाम हैं) ।
धन्वन्तरिक्षपणकामरसिंह शङ्कु
वेताल भट्ट घटकर्पर कालिदासाः ।
ख्यातो वराहमिहिरो नृपतेः सभायां
रत्नानि वै वररुचि र्नव विक्रमस्य ॥
धन्वंतरि, क्षपणक, अमरसिंह, शंकु, वेतालभट्ट, घटकर्पर, कालिदास, वराह, मिहिर, और वररुचि – ये महाराज विक्रम के नवरत्नों जैसे नौ कवि हैं ।
अश्वत्थामा बलि र्व्यासो हनुमांश्च बिभीषणः ।
कृपः परशुरामश्च सप्तैते चिरजीविनः ॥
अश्वत्थामा, बलि, व्यास, हनुमान, विभीषण, कृप, और परशुराम, ये सात चिरंजीवि हैं ।
बलि र्बिभीषणो भीष्मः प्रह्लादो नारदो ध्रुवः ।
षडेते बैष्णवा ज्ञेयाः स्मरणं पापनाशनम् ॥
बलि, बिभीषण, भीष्म, प्रह्लाद, नारद, और ध्रुव – इन छे वैष्णवों का स्मरण करने से पाप का नाश होता है ।
वह्नि र्वेधाः शशाङ्कश्च लक्ष्मीनाथस्तथैव च ।
नारदस्तुम्बरु श्चैव षड्जादीनां ऋषीश्वराः ॥
अग्नि, ब्रह्मा, चंद्र, विष्णु, नारद, तुंबरु – ये छे संगीत के महर्षि हैं ।
गणनाथ सरस्वती रवि शुक्र बृहस्पतिन् ।
पञ्चैतानि स्मरेन्नित्यं वेदवाणी प्रवृत्तये ॥
गणेश, सरस्वती, रवि, शुक, और बृहस्पति, इन पाँचों का स्मरण करके हि वेदपठन में प्रवृत्त होना चाहिए ।
कृष्णो योगी शुकस्त्यागी राजानौ जनकराघवौ ।
वसिष्ठः कर्मकर्ता च पञ्चैते ज्ञानिनः स्मृताः ॥
योगी श्री कृष्ण, त्यागी शुकदेवजी, राजाओं में जनक और श्री राम, और कर्मरत वसिष्ठ – ये पाँच ज्ञानी माने गये हैं ।
पुण्यश्लोको नलो राजा पुण्यश्लोको युधिष्ठिरः ।
पुण्यश्लोको विदेहश्च पुण्यश्लोको जनार्दनः ॥
नल राजा, युधिष्ठिर, विदेही जनक, और जनार्दन – ये पुण्यरुप हैं ।
अहल्या द्रौपदी सीता तारा मन्दोदरी तथा ।
पञ्चकं ना स्मरेन्नित्यं महापातकनाशनम् ॥
अहल्या, द्रौपदी, सीता, तारा, और मंदोदरी, इन पाँचों के नित्य स्मरण से (गुण और जीवन स्मरण से) महापातक का नाश होता है ।
लक्ष्मणो लघुसन्धानः दूरपाती च राघवः ।
कर्णो दृढप्रहारी च पार्थस्यैते त्रयो गुणाः ॥
लक्ष्मण छोटी वस्तु का वेध करने में काबेल थे; दूर का वध करने में राम निपुण थे; और कर्ण दृढ प्रहार करने में कुशल थे; (पर) पार्थ (अर्जुन) तो इन तीनों गुणों में माहेर था ।
नीतितत्त्व प्रवक्तारः त्रयः सन्ति धरातले ।
शुक्रश्च विदुरश्चायं चाणक्यस्तु तृतीयकः ॥
इस धरा तल पर नीतितत्त्व प्रवर्तन करनेवाले तीन महात्मा हो गये – शुक्र, विदूर और चाणक्य ।
विजेतव्या लंका चरण-तरणीयो जलनिधिः ।
विपक्षः पौलस्त्यो रण-भुवि सहायाश्च कपयः
तथाप्येको रामः सकल-मवधीद्राक्षसकुलम् ।
क्रियासिद्धिः सत्त्वे भवति महतां नोपकरणे ॥
लंका जीतनी थी, पैर से चलकर सागर पार करना था, पुलस्त्य ऋषि के पुत्र (रावण) से शत्रुता थी, रणांगण में (केवल) वानर लोग मदत करनेवाले थे; फिर भी अकेले रामचंद्रजी ने राक्षसों का सारा कुल खत्म कर दिया । महान लोगों को काम में सिद्धि सत्त्व से (आत्मबल से) मिलती है, न कि साधनों से ।
संगः सर्वात्मना हेयः स चेत् त्यक्तुं न शक्यते ।
स सद्भिःसह कर्तव्यः साधुसंगो हि भेषजम् ॥
संग/आसक्ति सर्वथा त्याज्य है; पर यदि ऐसा शक्य न हो तो सज्जनों का संग करना । साधु पुरुषों का सहवास जडीबुटी है (हितकारक है) ।
महानुभावसंसर्गः कस्य नोन्नतिकारकः ।
रथ्याम्बु जाह्नवीसंगात् त्रिदशैरपि वन्द्यते ॥
सत्पुरुष का सान्निध्य किसको उपकारक नहीं होता? गंगा के साथ बेहने पर, गटर का पानी देवों द्वारा भी पूजा जाता है ।
अचतुर्वदनो ब्रह्मा द्विबाहुरपरो हरिः ।
अभाललोचनः शम्भुर्भगवान् बादरायणः ॥
उनके चार मुख नहीं, फिर भी जो ब्रह्मा है; दो बाहु है, फिर भी हरि (विष्णु) है; मस्तिष्क पर तीसरा नेत्र नहीं, फिर भी शम्भु है; ऐसे भगवान श्री बादरायण (व्यास मुनि) है ।
वज्रादपि कठोराणि मृदुनि कुसुमादपि ।
लोकोत्तराणां चेतांसि को हि विक्षातुमर्हति ॥
(बाहर से) वज्र जैसे कठोर महापुरुषों का अंतःकरण पुष्प जैसा कोमल होता है । ऐसे लोकोत्तर अंतःकरण को कौन समज सकता है ?
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ततो नृपः स्याद्विजयाभिनन्दनः ।
ततस्तु नागार्जुन भूपतिः कलौ
कल्किः षडेते शककारकाः स्मृताः ॥