इस रचनात्मक का सिद्धांत कहता है कि ‘विश्व में किसी भी वस्तु का भौतिक निर्माण होने से पहले उसका वैचारिक निर्माण होता है।’ यह मौलिक विचार नियम है। विचार रूपी मन के एक उदाहरण से समझे— सरोवर कीचडरहित हो तो शोभा देता है, दुष्ट मानव न हो तो सभा, कटु वर्ण न हो तो काव्य और विषय न हो तो मन शोभा देता है ।
पंकैर्विना सरो भाति सभा खलजनै र्विना
कटुवणैर्विना काव्यं मानसं विषयैर्विना ॥
सरोवर कीचडरहित हो तो शोभा देता है, दुष्ट मानव न हो तो सभा, कटु वर्ण न हो तो काव्य और विषय न हो तो मन शोभा देता है ।
शरीरं चैव वाचं च बुद्धिन्द्रिय मनांसि
नियम्य प्राञ्जलिः तिष्ठेत् वीक्षमाणो गुरोर्मुखम् ॥
शरीर, वाणी, बुद्धि, इंद्रिय और मन को संयम में रखकर, हाथ जोडकर गुरु के सन्मुख देखना चाहिए ।
विद्या हि का ब्रह्मगतिप्रदा वा बोधो हि को यस्तु विमुक्तिहेतुः ।
को लाभ आत्मावगमो हि यो वै जितं जगत्केन मनो हि येन ॥
विद्या कौन सी? जो ब्रह्मगति देती है वह ।
ज्ञान कौन सा ? जो विमुक्तिका कारण बने वह ।
लाभ कौन सा? आत्मा को पहचानना ।
जगत किसने जिता है ? जिस ने मन जिता है ।
यदि वहसि त्रिदण्डं नग्रमुंडं जटां वा
यदि वससि गुहायां पर्वताग्रे शिलायाम् ।
यदि पठसि पुराणं वेदसिध्धान्ततत्वम्
यदि ह्रदयमशुध्दं सर्वमेतन्न किज्चित् ॥
आदमी त्रिदंड धारण करे, सर पे मुंडन करे, जटा बढाये, गुफा में रहे या पर्वत की चोटी पर, और वेद पुराण व्र सिद्धान्त के तत्व का अभ्यास करे, लेकिन जो ह्रदय साफ़ न हो तो ये सब बेकार है !
मनो हि द्विविधं प्रोक्तं शुध्दं चाशुध्दमेव च ।
अशुध्दं कामसंकल्पं शुध्दं कामविवर्जितम् ॥
अशुध्द और शुध्द एसे दो प्रकार का मन कहा है, कामना और संकल्प वाला मन अशुध्द और कामना रहित हो वह शुध्द ।
अन्तर्गतं महाशल्यं अस्थैर्य यदि नोदधृतम् ।
क्रियौषधस्य कः दोषः तदा गुणमयच्छतः ॥
जो अस्थिरता का कंटक मन में रहा है उसे यदि बाहर नहीं निकाला जाय तो, बाद में क्रियारुपी औषध गुणकारक न निकले उस में क्या दोष ?
सत्येन शुध्यते वाणी मनो ज्ञानेन शुध्यति ।
गुरुशुश्रूषया काया शुध्दिरेषा सनातनी ॥
वाणी सत्य से, मन ज्ञान से, काया गुरु की सेवा से शुध्द होती है – ये सनातन शुध्दि है ।
दानं पूजा तपश्र्चौव तीर्थसेवा श्रुतं तथा ।
सर्वमेव वृथा तस्य यस्य शुध्दं न मानसम् ॥
यदि आदमी का मन शुध्द न हो तो दान, पूजा, तीर्थ, सेवा, सुनना सब व्यर्थ है ।
चंचलं हि मनः कृष्णं प्रमाधि बलवद दृठम् ।
तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम् ॥
हे कृष्ण यह मन चंचल और बहोत ही चल बनानेवाला है । उसका निग्रह करना वायुकी तरह दुषकर है ।
अन्तश्र्चित्तं न चेत् शुध्दं बहिः शौचे न शौचभाक् ।
सुपकमपि निम्बस्य फ़लं बीजे कटु स्फ़ुटम् ॥
अन्तःचित्त जो शुध्ध न हो तो बाह्य शौच से मानव पवित्र नहीं बनता । नींब का फ़ल पक्का हो तो भी उसका बीज कटु हि होता है ।
मनः कपिरयं विश्र्वपरिभ्रमण लम्पटः ।
नियन्त्रणीयो यत्नेन मुक्तिमिच्छुभिरात्मनः ॥
यहाँ मनरुपी बंदर विश्व का भ्रमण करने में लंपट है, मुक्ति की इच्छावाले मनुष्य को उसे यत्नपूर्वक काबू में रखना चाहिए ।
सुकरं मलधारित्वं सुकरं दुस्तपं तपः ।
सुकरोक्षनिरोधश्र्च दुष्करं चित्तरोधनम् ॥
मलधारित्व, दुष्कर तप, इन्द्रियों का निरोध करना ये सब आसान है, लेकिन चित्त का निरोध करना मुश्किल है ।
ज्ञानं तीर्थं धृतिस्तीर्थं पुण्यं तीर्थमुदाह्यतं ।
तीर्थानामपि तत्तीर्थ विशुध्दि र्मनसः परा ॥
ज्ञान, धीरज और पुण्यको तीर्थ कहा है । लेकिन सब तीर्थ में विशुध्ध मन यहाँ श्रेष्ठ तीर्थ है ।
सुखाय दुःखाय च नैव देवाः न चापि कालः सुह्र्दोडरयो वा ।
भवेत्परं मानसमेव जन्तोः संसारचक्रभ्रमणैकहेतुः ॥
देव सुख या दुःख नहीं देते, काल भी मित्र या शत्रु नहीं है, लेकिन मानव का मन हि संसारचक्र में भ्रमण कराने का कारण है ।
आत्मानं रथिनं विध्दि शरीरं रथमेव तु ।
बिध्दिं तु सारथि विध्दि मनः प्रग्रहमेव च ॥
आत्मा को रथी, शरीर को रथ, बुद्धि को सारथी और मनको लगाम समझ।
मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः ।
बन्धाय विषयासक्तं मुक्त्यै निर्विषयं स्मृतम् ॥
मन ही मानव के बंध और मोक्षका कारण है, जो वह विषयासक्त हो तो बंधन कराता है और निर्विषय हो तो मुक्ति दिलाता है ।
वशं मनो यस्य समाहितं स्यात् किं तस्य कार्य नियमै र्यमैश्र्च ।
हतं मनो यस्य च दुर्विकल्पैः किं तस्य कार्य नियमै र्यमैश्र्च ॥
जिसका मन सुस्थिर है उसको यमनियमों का क्या काम? जिसका मन विकल्पों से भरा हो, उसको यम नियम से क्या लाभ ?
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