हिन्दू संस्कृति

क्या श्री कृष्ण का महारास पश्चिम परिभाषित सेक्स है, रासलीला का अर्थ, राधा कृष्ण का रासलीला

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क्या श्री कृष्ण का “महारास” पश्चिम परिभाषित सेक्स है?

मित्रों, आप सभी को श्री कृष्ण जन्माष्टमी की शुभातिशुभ मंगलकामनाएं | मेरा विश्वास है की इस लेख को पढ़कर आप बहुत सन्दर्भों में ब्रम्ह के कृष्ण स्वरुप को भलीभांति समझेंगे और बहुत सी सामान्य भ्रांतियों का निवारण भी होगा |

सनातन दर्शन में धरणा पूज्य है | शबरी की नवधा भक्ति से लेकर कर्मयोग के दुरूह सिद्धांत तक सनातन ने सभी को मुक्ति का मार्ग सुझाया है | वात्सल्य भाव की पूजा में कौसल्या ने प्रभु को बाल रूप में ईष्ट माना और आज भी पूज्य तो रामलला ही हैं, प्रेम भाव की पूजा पार्वती ने किया शिव को पति रूप में प्राप्ति हेतु, और शिव आज भी “शिवरात्रि” को ही पूज्य हैं |

आत्मतत्व को ब्रम्ह में समाहित करने का विज्ञान ही “भक्ति” है:

कुल मिलाकर आत्मतत्व को ब्रम्ह में समाहित करने का विज्ञान ही “भक्ति” है | अर्थात चेतना को उस ब्रम्ह के साथ जोड़ने का विज्ञान ही सनातन धर्म की भक्ति है जिसे गीता में “योग” कहा गया है और उसके प्रथम पुरुष हैं “योगेश्वर कृष्ण” | इस सम्पूर्ण ब्रह्मांडीय सत्ता के मूल में जो शक्ति केन्द्रित है वो “कृष्ण” (ब्लैक होल) हैं और यही कारण है की जब यशोदा के सामने कृष्ण अपना मुह खोलते हैं तो समस्त ब्रह्माण्ड और हजारों सूर्य और नक्षत्र उनमे समाहित दीखते हैं |

आज का आधुनिक विज्ञान भी कहता है की इस ब्रह्माण्ड का विस्तार इतना तीव्र है की सूर्य रश्मियाँ कभी उनसे टकराकर वापस नहीं आएँगी और इसलिए ब्रह्माण्ड की सीमा “अन्धकार” ही है यानी कृष्ण ही ब्रह्माण्ड हैं | दूसरी ओर कृष्ण कहते हैं “सब मुझमे ही समाहित है”…..तो बड़ा आश्चर्य होता है की विज्ञान भी “कृष्ण” को ही सिद्ध कर रहा है |

कृष्ण की भक्ति के दो स्वरुप:

कृष्ण की भक्ति दो स्वरुप में की जाती है, बाल कृष्ण और योगेश्वर कृष्ण। कृष्ण के जीवन का सिंहावलोकन करें तो हम पाते हैं की मुथुरा के जीवन में कृष्ण को वात्सल्य प्रेम (माता के सामान प्रेम) मिला और उद्धव के बाद कृष्ण “योगेश्वर” स्वरुप में ढलते गए | आज हमारे गृहस्थ हिन्दू समाज हेतु जन्माष्टमी वात्सल्य भक्ति को जगाने का पर्व है |

गोपियों के वस्त्रों को लेकर भाग जाना, माखन चुराकर खाना इसी वात्सल्य (ममतामयी) प्रेम के कारण था | आज पश्चिम का संसार श्री कृष्ण के निश्छल और निर्मल व्यवहार को गोपियों के साथ “कामुकता” बताता है परन्तु उसे सनातन के भावनात्मक और निश्छल संबंधों और परस्त्री को मातृ तुल्य मानने का सनातन हिन्दू दर्शन का भान भी नहीं है |

रास लीला का दर्शन:

योग को समझाते हुए कृष्ण कहते हैं ……..

यत्रोपरमते चित्तं निरुद्धं योगसेवया।
यत्र चैवात्मनात्मानं पश्यन्नात्मनि तुष्यति॥ ६/२०

भावार्थ —‘‘जहाँ योग के अभ्यास द्वारा संयत हुआ मन उपराम हो जाता है (जिस स्थिति में विषय या इन्द्रिय – संस्पर्श तनिक भी नहीं रहता) और जहाँ आत्मा द्वारा आत्मा का अनुभव करते हुए (परमात्मा के ध्यान से शुद्ध हुई बुद्धि द्वारा परमात्मा की साक्षात् अनुभूति करते हुए) अपनी आत्मा में ही (सच्चिदानंदघन परमात्मा में) परमतृप्ति का अनुभव करता है—(उसी स्थिति को योग कहा जाता है)।

कृष्ण के अनुसार मन की अवस्था को विषय या इन्द्रिय संस्पर्श से मुक्त कर यदि आत्म भाव का अनुभव होने दिया जाय तो मानसिक और आत्मिक अनुभूतियाँ रस का सृजन करती हैं | रस, भावना की चरम स्थिति का प्रतिक्रया रुपी आनंद है जो ब्रम्ह से मिलकर “रास” का महापर्व बन जाता है | यानि रास, ब्रम्ह में डूबने की और सद चित्त आनंद की अनुभूति है जो इन्द्रिय, शारीरिक संवेगों, कामना, विषय सबसे बहुत आगे निकल जाने की अवस्था है |

क्या महारास पश्चिम परिभाषित सेक्स है?

सनातन पुनर्जन्म और प्रारब्ध में विश्वास करता है यानि जन जन्मान्तरों के संचित कर्म प्रतिफलित होते हैं | तभी कौशल्या और दशरथ के पूर्व जन्म का फल ब्रम्ह को पुत्र रूप पाने के रूप में प्रतिफलित हुआ | द्वापर में कोटि संतों- जनों ने इस्वर को पति रूप में पाने की अभिलाषा में श्रृंगार भक्ति किया |

इस्वर को पति रूप में पाने से सप्त जन्मों की सुखानुभूति और मुक्ति के मार्ग का अक्षय पथ दोनों के मिलने का फायदा था | ये सभी सिद्ध संत महात्मा द्वापर युग में गोकुल में गोपीका बने और कृष्ण ने महारास रचकर उन्हें रास ब्रम्ह में सराबोर कर दिया और सद चित्त आनंद की अनुभूति कराइ जो इन्द्रिय, शारीरिक संवेगों, कामना, विषय सबसे बहुत आगे निकल जाने की अवस्था है और इस तरह जन्मों जन्मों के कर्मों का प्रतिफल उन सिद्ध जनों को मोक्ष के रूप में मिल गया |

रासलीला का अर्थ:

आज मूर्ख इसाई और बामपंथी “महारास” यानि “सद चित आनंद” को सेक्स कह कर श्री कृष्ण को और हिन्दू संस्कृति को आघात पहुंचा रहे हैं | दरअसल सनातन धर्म दर्शन की गूढता को समझने की काबिलियत 2000 सालों से एक किताब की मान्यता पर टिके लोगों के बस का नहीं जिसका भावनात्मक और दार्शनिक धरातल शून्य है |

क्या “उपरमते चित्तं’’ (किसी भी प्रकार के भोगपरक विषयादि से ऊपर उठने की अवस्था) का उद्घोष करने वाले श्री कृष्ण शारीरिक “सम्भोग” जैसे हेय मार्ग को चुनेंगे | दूसरी बात कही है ‘‘आत्मना आत्मानं पश्यन् आत्मनि तुष्यति’’। शुद्ध मन- बुद्धि द्वारा (ध्यान के माध्यम से) परमात्मा की साक्षात् (अपरोक्ष) अनुभूति करते हुए परम तृप्ति की अनुभूति ही लक्ष्य है । योगेश्वर कृष्ण ध्यानयोग की व्याख्या करते हुए उसे पराकाष्ठा पर लेकर आते हैं, जहाँ व्यक्ति आनंद की परमावस्था तक पहुँच जाता है। शब्दों का चयन इतना सुंदर है कि ‘आत्मा’ शब्द जहाँ हमें अपने अंदर विद्यमान आत्मसत्ता का भान कराता है, वहीं सच्चिदानंदघन परमात्मा का भी वह सूचक है; क्योंकि उसी का अंश तो हम सबमें विद्यमान है।

शब्द सीमा और लेखन को सारगर्भि करने हेतु “श्री राधा जी” के प्रसंग को छोड़ रहा हूँ ….फिर कभी |

मीरा,सूरदास,रहीम,रसखान के सद्चितआनंद घन श्री कृष्ण के जन्म दिवस पर आप सभी को मेरी ओर से भी मंगलकामनाएं ……………..
श्री कृष्ण गोविन्द हरे मुरारि हे नाथ नारायण वासुदेवाय
श्री कृष्ण गोविन्द हरे मुरारि हे नाथ नारायण वासुदेवाय

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Shivesh Pratap

Hello, My name is Shivesh Pratap. I am an Author, IIM Calcutta Alumnus, Management Consultant & Literature Enthusiast. The aim of my website ShiveshPratap.com is to spread the positivity among people by the good ideas, motivational thoughts, Sanskrit shlokas. Hope you love to visit this website!

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  • उत्तम एवं ज्ञान वर्धित लेख धन्यवाद शिवेश जी

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