संघ शताब्दी वर्ष 2025 श्रंखला लेख

हिन्दू ज्ञान परंपरा व वर्ण व्यवस्था का सम्यक चिंतन आवश्यक है – शिवेश प्रताप

Spread the love! Please share!!

हिन्दू ज्ञान परंपरा व वर्ण व्यवस्था का सम्यक चिंतन आवश्यक है

वामपंथी अतिवादियों की अधूरी जानकारी :

भारतीय संस्कृति में शूद्र वैसा नहीं है जैसा आज के समय में कम्यूनिस्ट अतिवादियों द्वारा बताया जाता है। शिव और दुर्गा सहस्रनाम में भगवान के नाम शूद्र और अवर्ण भी बताए गए हैं। यह सहस्रनाम उन्हीं पुराणो में हैं जिसे वर्णव्यवस्था का पक्षधर माना जाता है।  भगवान जगन्नाथ जी को शूद्र वर्ण स्वरूप मानकर ही पूजा जाता है यह शास्त्रीय मत है। किरातर्जुनीयम में भगवान शिव एक किरात (आदिवासी) के स्वरूप में हैं। श्रीमती पंडित को यह जानना चाहिए की भगवान वामन एवं परशुराम के अवतार ब्राह्मण कुल में हुए हैं तथा राम एवं कृष्ण का जन्म क्षत्रिय कुल में हुआ परन्तु अवतारों को वर्णव्यवस्था से जोड़ना वैचारिक पूर्वाग्रह है क्यों की इस नियम से तो मत्स्य, कच्छप, नृसिंह आदि अवतारों का अस्तित्व ही नहीं होता।

आदि शंकराचार्य – चांडाल संवाद देखें, चांडाल स्वरूप सदाशिव प्रतिप्रश्न करते हैं,

“विप्रोयम श्वापचोsयमित्यपि महान कोsयम् विभेदभ्रमः।“

अर्थात परमानंद स्वरूप परमात्मा को ब्राह्मण और स्वपच में कैसा भेद?

आगे आदिशंकर ने इस संवाद का समापन करते हुए भगवान शिव की प्रार्थना करते हुए 5 बार दोहराया है,

“चांडालोsस्तु स तु द्विजोsस्तु गुरुरित्येषा मनीषा ममे।“

अर्थात वह परमपिता चाहे चांडाल रूप हो या ब्राह्मण रूप, वही मेरा गुरु है।

वर्णों की जगह ज्ञान एवं भक्ति की उत्कृष्टता:

भारत में आज नहीं, प्राचीन काल से ही ज्ञान परंपरा में वर्णों की जगह ज्ञान एवं भक्ति की उत्कृष्टता को अधिक स्थान दिया गया है, यही कारण है कि महर्षि वाल्मीकि को आदिकवि कहा गया एवं उनके द्वारा रचित श्री रामायण निर्विवाद रूप से एक सर्वमान्य सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक ग्रंथ का स्वरूप ले सका। कालांतर में रामायण का प्रभाव पूरे एशिया महाद्वीप के साहित्य एवं आध्यात्मिक विचारधारा पर पड़ा। यदि वर्ण व्यवस्था में ब्राह्मणों के श्रेष्ठता बोध का पूर्वाग्रह होता तो वाल्मीकि समाज से आने वाले महर्षि की रचना को ज्ञान एवं आध्यात्म की परिपाटी में वह स्थान नहीं मिल पाता जो मिला।

यदि हम भारत के भक्ति परंपरा का सिंहावलोकन करें तो वहां पर संत परंपरा में भी आपको दादू दयाल , नामदेव,  संत रविदास तक ऐसे बहुत से लोग मिलेंगे जिन्होंने अपनी आध्यात्मिक ज्ञान परंपरा से एक बहुत बड़े भूगोल को प्रकाशित और प्रभावित किया है।  शूद्र शब्द का सर्वप्रथम उल्लेख ऋग्वेद के दसवें मंडल में पुरुष सूक्त में मिलता है जहां पर ब्रह्म को एक विराट पुरुष के रूप में बताते हुए शूद्रों को ईश्वर के पैरों से उत्पन्न बताया गया है। सनातन धर्म का अंध विरोध करने वाले इस बात को बड़ी चतुराई से छुपा लेते हैं की सनातन धर्म में इसी विराट पुरुष के चरणों की वंदना का भी विधान है। यदि वर्ण परंपरा में कोई भी विद्वेष होता तो चरण वंदना का विधान ही ना बनाया गया होता।

चारो वर्णों के योगदान से सनातन धर्म महान बना:

JNU की वाइस चांसलर के वक्तव्य को नकारने से अच्छा है की हम अपने सांस्कृतिक संदर्भों को समाज के सामने मजबूती से रखें। हमारी संस्कृति में गुण कर्म विभाग की जो सुंदर आधारशिला रखी गई है उसके अनुशासन और मर्यादा का पालन जिस सुंदर रूप में हुआ है वह अनुकरणीय है। शूद्रों के कर्तव्य कर्म के हिमालय ने ही अन्न उपजाकर इस देश के ब्राह्मणों के प्राणों का पोषण किया है जिससे अथातो ब्रह्म जिज्ञासा संभव हुई।

चर्म और लौह में अपना स्वेद श्रम झोंककर इसी श्रमिक समाज ने क्षत्रियों को वह अस्त्र शस्त्र दिए जिससे हमने सनातन धर्म को विदेशी आततयी अक्रमणकारियों से बचाया और हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम् का दर्शन सिद्ध हो सका। । वैश्य समाज ने अपने कौशल से भारत को संसार का उत्कृष्ट व्यापारिक स्थान बनाया। दुर्गम समुद्री यात्राएं कर के सनातन दर्शन, धर्म और विचार को दुनियाभर में विस्तारित किया इसलिए इनका योगदान प्रसंशनीय है अन्यथा हमारे ज्ञान विज्ञान दुनिया में प्रसारित ही नहीं हो पाते।

भारत की संस्कृति में वर्णव्यवस्था के अनुशासन की ही महिमा है की इतने लंबे कलावधि में ब्राह्मण अपने धर्म की साधना में भूखे रहे, भिक्षाटन किया परंतु उन्होंने कभी वैश्य या शूद्रों के श्रम आधारित समाज में घुसपैठ नहीं किया। क्षत्रिय समाज ने सदियों तक संस्कृति की रक्षा करते हुए स्वयं की जवानियां होम कर दिया, माताओं, बहनों को वैधव्य झेलना पड़ा, नन्हें बच्चों को पिता के प्रेम से वंचित होना पड़ा परंतु उन्होंने स्वधर्म का त्याग नहीं किया।

सत्यकाम जाबालि एवं गौतम ऋषि प्रसंग:

हमारी संस्कृति में सभी वर्णों का योगदान उत्कृष्ट है और समाज के अस्तित्व के लिए नितांत जरूरी। जब भी दुनिया अपने   विद्वेष के चश्मे को उतरकर सनातन धर्म के सामाजिक विज्ञान के मूल में देखेगी तो उसे समानता ही दिखेगी जहां सत्यकाम जाबालि, गौतम ऋषि के समक्ष अपने वर्ण की अनभिज्ञता को निर्भीकता से स्वीकारते हुए कहते हैं की उनकी माता के पास कई लोग आते थे और माता को भी इस बात की जानकारी नहीं की उनके पिता कौन हैं?

ऋषि गौतम उन्हें अपना शिष्य बनाने के लिए उनके वर्ण की अनिवार्यता को नकारकर ब्रह्म की खोज की महायात्रा का पथिक बना लेते हैं। क्योंकि गौतम का तर्क होता है कि जो अपने जीवन के सत्य को इतनी निर्भीकता और निष्ठुरता से स्वीकार कर सकता है वास्तव में वही ब्रह्म को जान सकता है। वैदिक काल से सतत चले आ रहे ज्ञान की साधना में किसी भी वर्ण, अवर्ण के स्वागत की यह परंपरा आबाध आज तक चली आ रही है। यहां तक कि इसी ब्राह्मण धर्म ने सम्पूर्ण भक्ति दर्शन को भक्ती द्राविड़ ऊपजी कहकर इसका समस्त श्रेय द्रविड़ समाज को दिया है।

वर्णव्यवस्था में कोई जन्मना पूर्वाग्रह नहीं रहा:

ऐतिहासिक प्रमाणों को देखें तो वर्णव्यवस्था में कोई जन्मना पूर्वाग्रह भी नहीं रहा है। गुण कर्म विभाग से ही संचालित रही इस व्यवस्था में अंतरपरिवर्तन की भी सदा से संभावनाएं खुली रही हैं इसलिए बहुत सारे महापुरुषों ने इस अंतरपरिवर्तन का प्रयोग भी किया है। विष्णु पुराण में क्षत्रिय राजा नेदिष्ट के पुत्र नाभाग ने वैश्य वर्ण को स्वीकार किया था एवं इनके पुत्र धृष्ट, ब्राह्मण वर्ण को स्वीकार करते हैं और उनके पुत्रों ने क्षत्रिय वर्ण स्वीकार किया (विष्णु पुराण 4.1.13 एवं 4.2.2)। विष्णु पुराण (4.1.14) में ही राजा पृषध, क्षत्रिय से शूद्र वर्ण में आए एवं तपस्या से मोक्ष प्राप्त हुआ। राजा रघु के पुत्र प्रवृद्ध राक्षस हुए तथा विश्वामित्र के पुत्रों ने शूद्र वर्ण अपनाया। महाभारत आदि पर्व, विष्णु पुराण, भागवत के अनुसार राजा प्रतीप के 3 पुत्रों में देवापि ब्राह्मण, शांतनु और महारथी क्षत्रिय राजा बने।

सनातन धर्म के गौरवशाली अध्याय:

कोई भी वर्ण या समाज, किसी भी संस्कृति के विकास में अकेले उत्तरदायी नहीं है इसके पीछे पूरे समाज का योगदान होता है। समय आ गया है जब हम सनातन धर्म के समतामूलक मूल विचारों की पुनर्स्थापना करें जो बर्बर आक्रमणकारियों के दीर्घ कालावधि में उनके कुत्सित विचारों से मलीन हो गए थे। भारत को विश्वगुरु बनाने के क्रम में सभी वर्णों के उत्थान और योगदान को सामान रूप से रेखांकित करने की आवश्यकता है।

ऋषि ऐतरेय, ऐलूष, महात्मा विदुर, संत रविदास, वाल्मीकि, जाबालि आदि सभी इस सनातन धर्म के वह गौरवशाली अध्याय हैं जिसे देश-संस्कृति विरोधी, वामपंथी गैंग ब्राह्मण धर्म कहकर ताना मारता है। यह भूलना नहीं चाहिए की जिस सामान अवसरों की स्थापना के मानक की बात पश्चिम के विचारक आज के दौर में करते हैं वह इसी ब्राह्मण संस्कृति में हज़ार वर्षों से विद्यमान है और उसके प्रमाण भारत के कण कण में फैला हुआ है।

Facebook Comments

Spread the love! Please share!!
Shivesh Pratap

Hello, My name is Shivesh Pratap. I am an Author, IIM Calcutta Alumnus, Management Consultant & Literature Enthusiast. The aim of my website ShiveshPratap.com is to spread the positivity among people by the good ideas, motivational thoughts, Sanskrit shlokas. Hope you love to visit this website!

Recent Posts

आत्मनिर्भर रक्षातंत्र का स्वर्णिम अध्याय। दैनिक जागरण 3 अक्टूबर 2023

       रक्षा निर्यात पर भारत सरकार द्वारा किए जा रहे अभूतपूर्व प्रयासों के…

8 months ago

भारतीय द्वीप समूहों का सामरिक महत्व | दैनिक जागरण 27 मई 2023

भारतीय द्वीप समूहों का सामरिक महत्व | दैनिक जागरण 27 मई 2023  

12 months ago

World Anti Tobacco Day in Hindi तंबाकू-विरोधी दिवस: धूम्रपान-मुक्त दुनिया की ओर

  World Anti Tobacco Day in Hindi तंबाकू-विरोधी दिवस: धूम्रपान-मुक्त दुनिया की ओर   परिचय:…

12 months ago

Commonwealth Day in Hindi 2023 राष्ट्रमंडल दिवस: एकता और विविधता का उत्सव

  Commonwealth Day in Hindi 2023 राष्ट्रमंडल दिवस: एकता और विविधता का उत्सव परिचय: राष्ट्रमंडल…

12 months ago

Anti Terrorism Day 21st May in Hindi आतंकवाद विरोधी दिवस 21 मई

आतंकवाद विरोधी दिवस: मानवता की रक्षा करना और शांति को बढ़ावा देना आतंकवाद विरोधी दिवस परिचय:…

1 year ago

World Telecommunication Day (Information Society Day) in Hindi विश्व दूरसंचार दिवस इतिहास

World Telecommunication Day (Information Society Day) in Hindi विश्व दूरसंचार दिवस का इतिहास   17…

1 year ago