हिन्दू संस्कृति

क्या रिलिजन या मजहब हमारे “धर्म” को परिभाषित कर सकता है?

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रिलिजन क्या है?

संत आगस्तीन एवं अंग्रेजी भाषा के विद्वान टॉम हार्पर और जोसफ कैम्पबेल के अनुसार रिलिजन शब्द दो शब्दों री (पुनः) एवं लिगेयर (बांधना) से बना है जिसका अर्थ है बार बार बांधना या व्यक्ति को ईशु से जोड़ना | क्या किसी पर कोई ईश्वर थोपे जाने का विषय है ?

मजहब क्या है?

मजहब शब्द इस्लाम में ज़हाबा शब्द से उदित है जिसका अर्थ है “चलना” यानी इस्लाम पथ पर चलना |

प्रश्न यह उत्पन्न होता है की क्या चलने भर से या जबरदस्ती थोपने भर से हम हिन्दू संस्कृति के “धर्म” का अभिप्राय पूरा कर सकते हैं ? “धर्म” : धर्म शब्द का प्रादुर्भाव संस्कृत के “धी” धातु से हुआ है जिसका अर्थ है धारण करना |

धर्म की परिभाषा:

गीता में श्री कृष्ण ने कहा “धीयते इति धर्मः” यानि आत्मा, मन और शरीर जिसे स्वछंदता से धारण करे वो ही धर्मं है | गायत्री मंत्र का “धीमहि” इसी परम उद्घोष की पुनरावृत्ति करता है| आधुनिक विश्व के महान दार्शनिक स्वामी विवेकानंद ने भी हिन्दू संस्कृति के धर्म  को “मन की पूर्ण स्वतंत्रता” “absolute freedom of mind” ही माना है|

न थोपना, न बांधना अपितु धारण करने की स्वतंत्रता ही हिन्दू संस्कृति का मूल है | क्षत्रिय राजाओं के महलों में तलवार, वीरता, सौंदर्य, ऐश्वर्य और वैभव से निकलकर वैराग्य और अहिंसा का मूल मंत्र संपूर्ण विश्व में फैलाने वाले महावीर स्वामी और गौतम बुद्ध इसी  “absolute freedom of mind” की सबसे सशक्त अभिव्यक्ति हैं और धर्म की सार्थकता को सिद्ध करने वाले हैं |

संसार जिस अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की बात आज 21वी शताब्दी में कर रहा है वो स्वतंत्रता हमारे देश में चौथी  शताब्दी के उत्तरार्ध तक आ चुकी थी भले ही आज हम इस पर लम्बा चौड़ा भाषण न दें परन्तु मैं संसार को सूचित करना चाहता हूँ की ये हमारी धारणा में सांगोपांग है |

धर्म का उद्देश्य:

आज भले ही मानवाधिकार और नागरिक स्वतंत्रता के नाम पर विश्व के कई देश हमारे भारत को विश्व मंच से प्रवचन देते मिलते हैं परन्तु यदि आज की सभ्यता अपनी तन्द्रा को तोड़ कर हिन्दू सांस्कृतिक अध्याय का पुनार्विवेचन करे तो अवस्य ही मानवाधिकार और नागरिक स्वतंत्रता की आत्मा से विश्व का साक्षात्कार हो जाएगा |

हमारे धर्म का मूल उद्देश्य था की मानसिक स्वतंत्रता से धारण किया गया धर्म ही सत्ता का विकेंद्रीकरण एवं शक्ति का समन्वय कर सकता है | और यह विकेंद्रीकरण ही विश्व शांति ला सकता है | कोई विचार इतना ताकतवर हो जाए जो दुसरे विचारों को निगल जाए या कोई शक्ति इतनी प्रभुता सम्पन्न हो जाए जो मानवता को निगलने को तत्पर हो जाए, इसी अतिरेकवाद को “धर्म” निरुद्ध करता है |

सनातन परंपरा के पंथों में एकरूपता:

यही अतिरेकवाद हिटलर और मुसोलिनी के रूप में कभी मानवता का संहार यूरोप में करती है तो कभी अमेरिका के रूप में नागासाकी और हेरोशिमा में करती है और कभी ईराक में सद्दाम हुसेन बनकर लाखों बेगुनाह कुर्दों को जहरीली गैसों में दम घोट कर मार देती है| इसके उलट भारत में आर्यों के जीवन की जिजीविषा और जैनियों के वैराग्य में, आर्यों के यज्ञों और जैनियों के तपस्याओं में, आर्य ऋषियों और जैन मुनियों में अद्भुत एवं सहज सामंजस्य रहा| कनिष्क के वैष्णव शासन में जैनियों का तथा खारवेल के जैन शासन में आर्यों का समांग रूप से आदर और सम्मान था | ये धर्म में निहित धारण करने के सहज और सामान्य स्वरुप का प्रबलतम उदाहारण है |

आज अयोध्या, मथुरा, दिल्ली से लेकर सुदूर श्रवणवेलगोला तक फैले हुए विशाल भूभाग पर आर्य-जैन सामंजस्य का सफल और स्वर्णिम समन्वय विश्व के दुसरे किसी इतिहास में नहीं है| विश्व में इस्लाम के सिया-सुन्नी संघर्ष में मारे जाने वाले लोगों की संख्या प्रतिवर्ष लाखों में होती है जो ईसाईयों से होने वाले युद्धों में मारे जाने वाले लोगों की संख्या से बहुत अधिक है |

33 करोड़ देवताओं की संकल्पना:

पश्चिम को 33 करोड़ देवताओं की संकल्पना भले ही हास्यास्पद लगे परन्तु 33 कोटि मनुष्यों के 33 कोटि देवता ही संसार में शक्ति और विचारों में समन्वय ला सकते हैं यही सोचकर हमारे मनीषियों ने 33 कोटि देवताओं की संकल्पना का सृजन किया | ऐसा संभव भी हुआ क्यों की हमारे धर्म की परिभाषा गढ़ने वाले कभी सत्ताधीशों के पाल्य नहीं रहे जैसा की पश्चिम के चर्चों में हुआ |

आज विश्व जिस प्रकार से ईस्लाम और इसाइयत का अखाड़ा बनी हुई है और उस से सम्पूर्ण मानवता सहमी हुई है ऐसे समय में ही तो हमारे धर्म का वास्तविक उद्देश्य “absolute freedom of mind” निखर कर और जाज्जवल्यमान और दैदीव्यमान हो उठा है | आज हम जिस रचनात्मकता और विविधता की बात करते हैं क्या वो धर्म के मूल से विमुख होकर हमें हासिल होता क्या ? कदापि नहीं |

सांस्कृतिक वैविध्य:

आज हिन्दुकुश से गंगा के विशाल मैदानों में होते हुए हिन्द महासागर तक समाज, खानपान, बोली ,भाषा, सभ्यता, संस्कृति में जो विविधता व्याप्त है उसमे हमारे धर्म का ही योगदान है| “कितनी अनेकता व्याप्त है” यह कहकर भारत के ऊपर घृणित भाव से हसते हुए विश्व को देख कर हम इस खिल्ली का माकूल जवाब भले ही न दे सकें परन्तु पंजाबी छोले-भठूरे, राजस्थानी दाल-बाटी, यूपी के हलुआ-पूरी, बिहार के बाटी-चोखा, बंगाली माछ-भात, हैदराबादी बिरयानी और मद्रासी इडली-साम्भर के बदले वे हमें सिर्फ उबले हुए बांस की डंडियाँ और बर्गर ही खिला सकते हैं|

ये तभी संभव हुआ जब की हमारे धर्म ने किसी के ऊपर विचारधाराओं के साथ कोई विशिष्ट पकवान, पहनावा या भाषा को नहीं थोपा |

धर्म का “absolute freedom of mind”:

यदि आज धर्म का “absolute freedom of mind” न होता तो सांख्य और चार्वाक दर्शन कहाँ होता ? सूर के एकतारे पर “अब मै नाच्यो बहुत गोपाल” का स्वर स्फुरण न होता, तुलसी की लेखनी से “अब लौ नसानी” का साक्षात्कार न होता |  भले ही “सतत विकास” को जापान देश की तरह हम “कायजेन” का नाम न दे सके परन्तु भारत कभी द्वैत, अद्वैत, अद्वैताद्वैत और विशिष्ट अद्वैताद्वैत की महायात्रा न कर पाता यदि हमने सतत विकास के रूप में धर्म के “absolute freedom of mind” की धरणा को न स्वीकारा होता|

भक्ति योग का ज्ञान योग पर विजय श्री ही “धर्म” का मूल उद्देश्य था जो हमें सतत फलदायी भी रहा और यही तो रामायण में शबरी की नवधा भक्ति और गीता में हमें “योगक्षेमं वहाम्यहम” के रूप में परिलक्षित भी हुआ|

महायान और शैव का समन्वय:

जब बौद्ध धर्म की महायान शाखाओं का तिब्बत की कंदराओं के अति प्राचीन शैव धाराओं में पुनार्विलय हुआ था तभी “धर्म” का एक युगांतकारी उद्देश्य पूरा हुआ था | यह श्रमणों का ब्राह्मण धर्म के साथ विलय का महासंगम था आज विश्व को रिलिजन और मजहब की सीमाओं को लांघ कर “धर्म” की अजस्र विचारधारा से मानवता का अभिषेक करना चाहिए| विश्व में शान्ति स्थापित करने के प्रयासों को अधिक से अधिक बल तभी मिलेगा जब हम भारतीय संस्कृति के लोग झूठे आयातित “सेक्युलर” मानसिकता को त्याग कर अधिक से अधिक धार्मिक बनेंगे|

विश्व में मानवीय स्वतंत्रता का भागीरथ प्रयास जब कभी अपने चरम पर पहुँच कर “absolute freedom of mind” की बात कर रहा होगा तो वास्तव में वह “धर्म” को ही खोज रहा होगा | उस दिन समस्त मानवता को यही आभास होगा की हम जिसे पाना चाहते है वो तो भारत की सांस्कृतिक धारणा में सदियों से सन्निहित था और उसी दिन महान भारतीय संस्कृति का परम उद्देश्य “धर्म” के रूप में पूरा हो रहा होगा |

(Dharma is not Religion or Majhab. मेरा यह लेख www.pravakta.com पर प्रथम प्रकाश्य |

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Shivesh Pratap

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