जब हम तमाम परेशानियों से बिल्कुल ही निराश हो जाते हैं, जब समझ नहीं आता कि अब आगे कैसे बढ़ा जाए, जब ये डर आपको डुबाने लगे कि कहीं आपका सपना पूरा होगा भी या नहीं तब अशोक खाड़े जैसे लोगों की कहानी आपको प्रेरणा की वो रोशनी देती है जिसके सहारे आप आगे बढ़ने लगते हैं।
जिंदगी में सफलता उसी के कदम चूमती है जिनके हौसलों में जान होती है, जिनके इरादे नेक और पक्के होते हैं वो कभी भी मुश्किलों से घबराकर भागते नहीं हैं, बल्कि उसी मुश्किल को अपना हथियार बना लेते हैं। कुछ ऐसी ही कहानी अशोक खाड़े की है, जिन्होंने जिंदगी का वो दौर देखा है जिसकी शायद हम और आप कल्पना भी नहीं कर सकते।
खाड़े ने अपने जीवन में घोर गरीबी देखी है। उनके पिता जूते ठीक करते थे और अशोक की मां 12 आने रोज पर खेतों में मजदूरी करती थीं। आपको जानकर हैरानी होगी कि आज अशोक खाड़े दास ऑफशोर इंजीनियरिंग प्रा. लि. के एमडी (मैनेजिंग डायरेक्टर) हैं। वो समुद्र में 100 से ज्यादा प्रोजेक्ट पूरे कर चुके हैं। दास ऑफशोर में 4,500 से ज्यादा कर्मचारी हैं।
अशोक खाड़े का जन्म महाराष्ट्र के सांगली में पेड नाम के गांव में हुआ था। अशोक के पिता मुंबई में एक पेड़ के नीचे बैठकर जूते ठीक करते थे। इनका परिवार गांव में था और इनके परिवार में छह बच्चे थे। अशोक के पिता ने अपने बड़े बेटे दत्तात्रेय को पढ़ाई के लिए रिश्तेदार के घर भेज दिया था। फिर भी पांच बच्चों को पाल पाना बेहद मुश्किल था।
खाड़े जब पांचवीं क्लास में थे तो एक दिन उनकी मां ने उन्हें चक्की से आटा लाने भेजा था। बारिश के दिन थे। अचानक अशोक फिसले और सारा आटा कीचड़ में गिर गया। अशोक ने घर पहुंचकर यह बात बताई, तो मां रोने लगीं। उनके पास बच्चों को खिलाने के लिए कुछ भी नहीं बचा था। वो गांव के पाटिल के घर से थोड़े भुट्टे और कुछ अनाज मांगकर ले आईं। उसे पीसकर उन्होंने रोटी बनाई और बच्चों को खिलाया। खुद भूखी रहीं। रात में अशोक के छोटे भाई की नींद भूख के कारण खुल गई। मां ने उसे किसी तरह सुलाया। फिर तड़के उठकर कुछ बीजों को पीसकर उन्होंने रोटी बनाई। अशोक ने उसी दिन तय कर लिया था कि परिवार को गरीबी से निकालना है।
सातवीं कक्षा के बाद अशोक भी दूसरे गांव के स्कूल में पढऩे चले गए थे। वे हॉस्टल में रहते थे। 1972 में महाराष्ट्र में भीषण अकाल पड़ा। हॉस्टल में अनाज मिलना बंद हो गया। अशोक के लिए बहुत बड़ी परेशानी खड़ी हो गई, क्योंकि उन्हें घर से भी कोई मदद नहीं मिल सकती थी। तब अशोक के पिता ने उन्हें मराठी की एक कहावत बताई थी। हिंदी में इसका अर्थ होता है- ‘जब तक पलाश के पत्ते आते रहें, खुद को गरीब मत समझना।’
दरअसल, पलाश के पत्ते बिना पानी के भी आ जाते हैं। इन पत्तों से दोने-पत्तल बनाए जाते हैं। यानी खाने के लिए थाली न हो, तो पत्तों से भी काम चलाया जा सकता है। अशोक को पिता की कही गई कहावत से बहुत हौसला मिला और उन्होंने खूब मन लगाकर पढ़ाई की। उनकी खाने की परेशानी भी हल हो गई। साथ में पढऩे वाले एक लड़के के परिवार ने उन्हें छह-सात महीने तक खाना खिलाया।
अशोक ने हरे रंग का एक स्याही वाला पेन पिछले 33 साल से संभालकर रखा है। इसकी कीमत साढ़े तीन रुपए है। इसकी निब 25 पैसे की आती थी। 1973 में जब अशोक को ग्यारहवीं बोर्ड की परीक्षा में बैठना था, तो पेन की निब बदलवाने के लिए उनके पास चार आने भी नहीं थे। तब टीचर ने पैसे देकर निब बदलवाई और अशोक एग्जाम में लिख सके। अशोक एक मों ब्लां पेन (montblanc) भी रखते हैं, जिसकी कीमत 80 हजार रुपए है। यह पेन उनकी आज की स्थिति बताता है। अशोक कहते हैं कि साढ़े तीन रुपए वाला पेन उन्हें हमेशा धरती पर रखता है और अतीत को भूलने नहीं देता।
बोर्ड परीक्षा के बाद अशोक मुंबई में बड़े भाई दत्तात्रेय के पास पहुंचे। दत्तात्रेय उस समय तक मझगांव डॉक यार्ड में वेल्डिंग अप्रेंटिस की नौकरी पा चुके थे। अशोक ने उनकी मदद से कॉलेज के पहले साल की पढ़ाई की। खुद भी ट्यूशन पढ़ाकर 70 रुपए कमाते थे। सेकंड ईयर पास करने के बाद अशोक को मेडिकल में एडमिशन मिल जाता।
अशोक इसके लिए एक कोचिंग में भी जाने लगे। लेकिन हालात बदल गए। भाई ने बताया कि अब वो अशोक का खर्चा नहीं उठा पाएंगे। परिवार की मदद के लिए अशोक को पढ़ाई छोड़कर मझगांव डॉक में अप्रेंटिस का काम करा पड़ा। उन्हें 90 रुपए स्टाइपेंड मिलती थी। फिर कुछ समय बाद अशोक के छोटे भाई सुरेश को भी पढ़ाई छोड़कर अप्रेंटिस बनना पड़ा।
अशोक की हैंडराइटिंग अच्छी थी। इसके कारण कुछ समय बाद उन्हें शिप डिजाइन की ट्रेनिंग दी जाने लगी। चार साल बाद वे परमानेंट ड्राफ्ट्समैन बना दिए गए। उनका काम था जहाजों की डिजाइन बनाना। सैलरी बढ़कर 300 रुपए हो गई। लेकिन अशोक इतने से ही संतुष्ट नहीं हुए। वे नौकरी करने के बाद शाम को मैकेनिकल इंजीनियरिंग में डिप्लोमा करने लगे।
चार साल बाद डिप्लोमा मिलने पर उन्होंने क्वालिटी कंट्रोल डिपार्टमेंट में ट्रांसफर ले लिया। यहां उन्हें यह चेक करना होता था कि जहाज डिजाइन के अनुसार बन रहा है कि नहीं। काम के सिलसिले में अशोक को जर्मनी भेजा गया। वहां उन्होंने दुनियाभर में मशहूर जर्मन टेक्नोलॉजी को करीब से देखा। वहीं उन्हें पता चला कि वे जो काम कर रहे हैं उसकी कितनी अधिक कीमत है। अशोक भारत आए। उनकी शादी भी हो गई। तीनों भाई एक ही जगह नौकरी करते और एक ही जगह रहते। अशोक ने गौर किया कि रोज आने-जाने में उन्हें पांच घंटे लग जाते हैं। उन्होंने सोचा कि इतने समय में वे काफी कुछ कर सकते हैं।
अशोक खड़े ने अपने भाइयों के साथ मिलकर दास ऑफशोर इंजीनियरिंग प्रा.लि. की नींव रखी। तीनों भाइयों ने एक साथ नौकरी नहीं छोड़ी। पहले छोटे सुरेश ने, फिर अशोक और फिर दत्तात्रेय ने नौकरी छोड़कर पूरा समय कंपनी को देना शुरू किया। कंपनी में दास नाम की भी दिलचस्प कहानी है।
अशोक कंपनी के नाम के लिए सोच-विचार कर रहे थे। वे दलित कम्युनिटी से आते हैं। उस समय के हिसाब से बिजनेस में अपने सरनेम के चलते उन्हें नुकसान हो सकता था। अत: उन्होंने तीनों भाइयों के नाम के पहले अल्फाबेट लेकर DAS नाम तय किया। कंपनी को शुरुआत में छोटे-मोटे काम मिले। एक बार चेन्नई की एक कंपनी मजदूरों की दिक्कत के चलते काम छोड़कर चली गई। अशोक ने वह काम ले लिया और एक तेल के कुएं के पास प्लेटफॉर्म बना दिया। यह उनका पहला बड़ा काम था। उसके बाद वे तरक्की की सीढ़ियां चढ़ते रहे।
अब दास ऑफशोर के क्लाइंट्स की लिस्ट में ओएनजीसी, ह्युंडई, ब्रिटिश गैस, एलएंडटी, एस्सार, बीएचईएल जैसी कंपनियां शामिल हैं। कर्मचारियों की संख्या के लिहाज से यह किसी दलित द्वारा बनाई गई सबसे बड़ी कंपनी है।
अशोक खाड़े ने गरीबी की दलदल से निकल शोहरत की बुलंदियों पर अपना परचम लहराया है, जिसका लोहा आज पूरा देश मानता है।
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