ईरफान सिद्दीकी जी आपको धंन्यवाद करना चाहता हूँ । आपने मुझसे बड़ा ही महत्वपूर्ण प्रश्न पूछा है समाधि के बारे में ।
छिति जल पावक गगन समीरा, पंच रचित यह अधम सरीरा |
हमारा शरीर पांच मूलभूत द्रव्योँ से बना हुआ हे ओर माडर्न विज्ञान भी मैटर की पांच अवस्थाओं के बारे मेँ बताता है कि ब्रम्हाण्ड भी ठोस द्रव गैस प्लाज्मा ओर बोसांस की पांच अवस्थाओ से बना हुआ हे ।
भारतीय संस्कृति मेँ अग्नि को सबसे पवित्र माना गया हे और अग्नि यानी उष्मा को ईश्वरीय सत्ता का प्रतिनिधि मानकर किसी भी कार्य का अथ या इति करते हेँ ।
अग्नि तत्व जीवन का उत्पादक है। संसार में जितने जीव−जन्तु, पौधे, वनस्पति आदि पैदा होते हैं और बढ़ते हैं, उनके मूल में गर्मी अवश्य रहती है। जहाँ कहीं चैतन्यता दिखाई देती है वहाँ गर्मी अवश्य पाई जाती है। शरीर में से गर्मी का अन्त हो जाय तो जीवन का अन्त हो जाना भी अवश्यम्भावी है।
‘अग्नि मीले पुरोहितम, यज्ञ्नस्य देवम रित्विजम, होतारम् रत्नधात्वम’
कहकर सब तत्वों में अग्नि के महत्व को प्रकट किया है।
अग्नि के द्वारा हम सामान्य गृहस्थ पार्थिव शरीर को दाह कर पंचमहाभूत मेँ विलीन कर देते है।
इस्लाम मेँ शरीर को जमीन मेँ दफनाने का कार्य किया जाता हे क्यूंकि कयामत के दिन जब अल्लाह इंसाफ करेगा तो वह कब्रोँ से उठाकर सभी अहले सुन्नत मुसलमानोँ को जन्नत ले जाएगा बाकी कुफ्र, दोजख आदि ।
परंतु भारत हिंदू दर्शन मेँ जन्म ओर जीव का पारलौकिक दर्शन बडा ही उत्कृष्ट हे जो किसी अल्लाह के द्वारा इंसाफ के दिन कब्र से निकाल कर मुक्ति देने से बहुत बडा है ।
समाधि अष्टांग योग की उच्च अवस्था है । वास्तव मेँ समाधि वह अवस्था हे जहाँ पर एक योगी अपने भोतिक शरीर एवँ सूक्ष्म शरीर को भी योगाग्नि मेँ जलाकर कर पवित्र कर देता हे एवम सत चित आनंद की प्राप्ति कर लेता है ।
एक योगी को शरीर को प्रतीकात्मक रुप से जलाने की कोई आवश्यकता नहीँ होती है । क्योंकि उसने अपने जीवन मेँ ही योगिक साधनाओं के बल पर पवित्र हो चुका है ।
एक योगी योगाग्नि से इतना पवित्र होता हे कि उसका मृतक कर्म न किया जाए तो कोई प्रभाव नहीँ पडता है और यही कारण है कि वानप्रस्थ और संन्यास मेँ जाने वाले लोगोँ को मृतकर्म करने की आवश्यकता नहीँ पड़ती थी । ओर मरने के बाद उनका शरीर जंगली जानवरो का भी ग्रास बन जाए तो भी कोई फर्क नहीँ पडता था ।
तदेवार्थ मात्र निर्भासं स्वरूप शून्यमिव समाधि।।
न गंध न रसं रूपं न च स्पर्श न नि:स्वनम्।
नात्मानं न परस्यं च योगी युक्त: समाधिना।।
भावार्थ : ध्यान का अभ्यास करते-करते साधक ऐसी अवस्था में पहुंच जाता है कि उसे स्वयं का ज्ञान नहीं रह जाता और केवल ध्येय मात्र रह जाता है, तो उस अवस्था को समाधि कहते हैं।समाधि की अवस्था में सभी इन्द्रियां मन में लीन हो जाती है। व्यक्ति समाधि में लीन हो जाता है, तब उसे रस, गंध, रूप, शब्द इन 5 विषयों का ज्ञान नहीं रह जाता है। उसे अपना-पराया, मान-अपमान आदि की कोई चिंता नहीं रह जाती है।
मोक्ष या समाधि का अर्थ अणु-परमाणुओं से मुक्त साक्षीत्व पुरुष हो जाना। तटस्थ या स्थितप्रज्ञ अर्थात परम स्थिर, परम जाग्रत हो जाना। ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय का भेद मिट जाना। इसी में परम शक्तिशाली होने का ‘बोध’ छुपा है, जहाँ न भूख है न प्यास, न सुख, न दुख, न अंधकार न प्रकाश, न जन्म है, न मरण और न किसी का प्रभाव। हर तरह के बंधन से मुक्ति। परम स्वतंत्रता अतिमानव।
आज के समय मेँ पद्मासन मेँ पार्थिव शरीर को जमीन मेँ डालकर समाज द्वारा किसी मृत संत को समाधित किए जाने की प्रक्रिया को यदि आप योगिक समाधि की वास्तविकता समझते हे आपको बता देना चाहता हूँ कि यह सिर्फ एक प्रतीक मात्र है ।
समाधि के दो स्तर हैं सम्प्रज्ञात समाज ओर असंप्रज्ञात समाधि जिसके बारे मेँ भविष्य मेँ कभी चर्चा करुंगा ।
कृपया समाधि की उत्कृष्टता को जमीन मेँ दफनाने मात्र के प्रतीकात्मक स्वरुप से तुलना करके अपमानित न करेँ ।
#हुंकार
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