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भगत सिंह की क्रांति जिंदा है? या नास्तिकता?? | भगत सिंह राजगुरु सुखदेव को फांसी

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भगत सिंह की क्रांति जिंदा है या नास्तिकता:

यदि गहराई से विचार किया जाए तो हम यही पाएंगे कि आज के समय में भी भगत सिंह की प्रासंगिकता इस कारण नहीं है कि वह एक क्रांतिकारी थे बल्कि इससे ज्यादा इस कारण है कि वह फांसी से पहले लेनिन को पढ रहे थे और उन्होंने एक लेख लिखा जिसका नाम था ‘मैं नास्तिक क्यों हूं’।

जितना बलिदान भगत सिंह ने दिया उतना ही सुखदेव और राजगुरु ने भी लेकिन शायद जेल में लेनिन को पढ़ने के कारण भगत सिंह ज्यादा प्रसिद्ध हो गए।

बामपंथ की न्यूरोमार्केटिंग:

यहां भी उनके प्रसिद्धि के पीछे मार्क्सवादी एंगल ही है जिसे हम समझ नहीं पाते……। बस यही न्यूरोमार्केटिंग करने में आज़ादी के बाद बामपंथी सफल हुए और राष्ट्रवादी असफल हुए। भारत के राष्ट्रवादी भगत सिंह के “नौजवान भारत सभा” के कार्यकाल को राष्ट्रवाद के लिए भुना ही नहीं पाए जबकि यह सभा इटली के राष्ट्रवादी नेता मैजिनी की “यंग इटली” नामक संस्था की प्रेरणा से ही बना था।

सुखदेव का योगदान भुला दिया गया:

यदि बहुत इमानदारी से मूल्यांकन किया जाए तो सुखदेव थापर का हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन में ज्यादा बड़ा योगदान था और सुखदेव इसकी रिवोल्यूशनरी सेल को पंजाब के साथ-साथ पूरे उत्तर भारत में ऑर्गेनाइज करते थेl सांडर्स की हत्या के पहले ही सुखदेव पूरे देश में चर्चित हो चुके थे और उसके बाद बड़ी निर्भीकता से जिस तरह 1929 में जेल में भूख हड़ताल की उसने तो मानो उन्हें एक निर्भय क्रांतिकारी बना दिया थाl

गांधी इरविन समझौते के संदर्भ में भी गांधी को एक ओपन लेटर लिखकर प्रश्नों की झड़ी लगा कर खुली चुनौती देने का काम भी सुखदेव थापर ने जेल से किया था।

राजगुरु का नेतृत्व:

जॉन सांडर्स को 17 दिसंबर 1928 को मारने के लिए जब पूरी योजना बनाई गई तो वास्तव में यह योजना सुखदेव थापर के द्वारा ही बनाई गई थी और जो दो लोग स्कॉट को मारने के लिए गए थे उनमें नेतृत्व राजगुरु का था और स्कॉट समझकर जॉन सांडर्स पर गोलियां चलाने की शुरुआत भी राजगुरु ने ही की थी और गोली सिर में मारी। गोली लगने के बाद जब सांडर्स जमीन पर गिरा तो उसके बाद जाते-जाते भगत सिंह ने भी उसके शरीर में कई गोलियां उतार दी।

छल की राजनीती:

फिर होनहार नौजवानों की क्रूरता पूर्ण छल से की गई फांसी के बाद ही देशद्रोहियों ने इनकी लाश पर राजनीति करना नहीं छोड़ा । तमिलनाडु के पेरियार ने अपने साप्ताहिक पत्र कुडई आरशु के 22 मार्च 1931 के अंक में उनके लिए “मैं नास्तिक क्यों हूँ” के ऊपर तमिल में संपादकीय लिखा था और वामपंथी उनकी शहादत को साम्राज्यवाद के ऊपर जीत के रूप में व्यक्त करते हुए उनके चरित्र का उपयोग देश को छलने में करने लगे। उनकी क्रांति और बलिदान को इस देश ने गौड़ कर दिया।

कभी सोचना चाहिए कि राजगुरु और सुखदेव को वह स्थान क्यों नहीं मिला जो भगत को मिला……

अकेले भगत सिंह इस देश के विमर्श में क्यों स्थान बना पाए और राजगुरु तथा सुखदेव पीछे छूट गए???

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Shivesh Pratap

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