विपत्ति के क्षणों का विचार प्रवाह कैसा हो

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देख प्रकृति का क्रूर कृत्य, फिर से परमेश्वर का रौद्र नृत्य |
झरता रहता है नयन नीर, कैसे खोता है मानव ह्रदय धीर||….© हुंकार

कभी कभी जीवन में जब हमारा कोई अपना बहुत करीबी हमसे बिछड़ जाता है, उसकी असमय मृत्यु हो जाती है तब जो ह्रदय विदारक कष्ट इस मानव मन को होता है वह बड़ा दीर्घकालिक दुष्प्रभाव डालता है | वह क्षोभ उत्पन्न होता है और सबसे प्रिय को छीन लेने का निर्मय कार्य जो उस विधाता ने किया है उस क्रूर कृत्य पर कई बार उसके अस्तित्व को नकार देने का मन करता है |

धर्म पर सारा दोष मढ देने का मन करता है | और इस तरह भावना की सत्यनिष्ठा में एक सहज प्रश्न उठता है की मेरे परिवार ने कभी किसी का कुछ नहीं बिगाड़ा, कभी अहित, अधर्म और कोई पापाचार नहीं किया फिर इतना बड़ा दारुण कष्ट ईश्वर ने मुझे क्यों दिया ??? जो व्यक्ति आज मृत्यु शैय्या पर पड़ा हुआ है वो इतना सज्जन, सीधा और धर्मनिष्ठ था फिर भी ऐसी मृत्यु !!! असमय, अनुचित ??? क्या अच्छे होने की सजा मिली ?? क्या वास्तव में कोई नहीं जो न्याय कर सके ??? क्या धर्म साधनाएँ और मानव मूल्य सभी व्यर्थ हैं ??

मै मानता हूँ की इतना आसान नहीं है ऐसे दुखों से पार पाना | किसी की बातें, भावनाएं, कमरे में उसके होने का एहसास और हर उससे जुडी हुई चीज में उसके होने का एहसास दिलाती हैं | बहुत मुश्किल है मानवीय भावनाओं की परिधि से निकलना | परन्तु जो सबसे ठीक बात है वो ये की हम इसके लिए निर्भय हों और इसे ईश्वर का अकाट्य विधान मानकर ऐसी किसी भी घटना के लिए मानसिक रूप से तैयार रहें क्यों की सर्वाधिक कष्ट हमें तब होता है जब हम किसी अप्रत्याशित के लिए तैयार नहीं होते हैं |

युधिष्ठिर ने यक्ष को उत्तर दिया की ” संसार में लाखों की मृत्यु रोज देखते हुए भी मनुष्य का उससे बचे रहने के उपायों में तल्लीन होना” वास्तव में संसार का सबसे व्यावहारिक आश्चर्य है |नचिकेता ने यम से पूछा “मृत्यु क्या है” और इस तरह सनातन धर्म ने मृत्यु के अकाट्य सिद्धांत को पुनर्वलित किया और इस अकाट्य परंपरा को सहर्ष स्वीकार भी किया |

|| प्रारब्ध ||

सनातन धर्म के कर्मफल की महान परंपरा से कोई अनछुआ नहीं है | जन्म जन्मान्तरों के संचित कर्मों के आधार पर ही प्रारब्ध का निर्माण होता है | और इस प्रारब्ध की गति ने ही साक्षात् ब्रम्ह को पैदा करने वाले राजा दशरथ को पुत्र वियोग में तड़प कर मरने दिया क्यों की श्रवण के माता पिता की गति में दशरथ का दोष था | नारद के श्राप से राम को पत्नी वियोग झेलना पड़ा | गर्भकाल में शुकी को पति से अलग करने के कारण ही सीता को गर्भकाल में पति से विमुख रहना पड़ा |

ईश्वर के न्याय को सर्वहितकारी और परम कल्याणदायक मान कर चलना ही सबसे उत्कृष्ट मार्ग है | हमें जन्म जन्मान्तरों के कर्मों की गति नहीं पता है परन्तु जो अच्छा कर्म है वो भी हमारे प्रारब्ध में सहायक है ऐसा मानकर हम अपने जीवन के हर कार्य को करें तो हमें उत्तम परिणाम प्राप्त होंगे |

हम अपने लोगों के वर्तमान जीवन के व्यवहार को आत्मा की महायात्रा का “क्षणिक रूप” मानकर देखें तब हम ईश्वरीय न्याय को थोडा समझ सकते हैं | अन्यथा मोह के वशीभूत हम लोग वास्तव में “मोह जनित अज्ञान” के कारण ही ईश्वर को दोष देते हैं |
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जब हम अपने किसी दारुण दुःख में ईश्वर को दोष देते हैं तो हम भूल जाते हैं की उसी ईश्वर ने हमें अनेकानेक सुख दिए और जीवन जीने के और भी कितने मार्ग सुझाये हैं और हमारे भीतर ऐसी प्रेरणा दी है की हम इस दारुण दुःख से निकल सकें |

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|| महात्मा बनादास की प्रेरणा ||

कृपापात्र को रुज मिले निर्धनता अपमान……निर्धनता अपमान वंश को छेदन कीन्हा…..

संत बनादास का दर्शन था की ईश्वर जिसे दुःख, गरीबी, रोग और अपमान देते है उससे प्रेम करते हैं | ईश्वर चाहता है की मेरा ये सेवक माया मोह छोड़ मुझसे प्रीती लगाये और परमगति को प्राप्त हो |

राम भक्ति में तुलसी दास जी के बाद यदि किसी का नाम है तो महात्मा बनादास का | भुसुंडी रामायण आप की ही कृति है | एक क्षत्रिय परिवार में जन्म लेने के बाद एक सैनिक के रूप में अपनी जीविका चलाते थे | एक दिन बनादास के एक मात्र पुत्र की अकाल मृत्यु हो गई और अयोध्या सरयू नदी पर मृत्यु कर्म के समय उन्हें ईश्वरीय प्रेरणा हुयी की ईश्वर ने मेरे ऊपर कितनी कृपा की है की मेरे एक मात्र मोह का कारन पुत्र भी मुझसे छीन लिया की मै भगवान की भक्ति कर सकूँ और इस तरह बनादास ने अपना घोडा वापस भेज दिया और वैराग्य ले लिए | 

श्री अयोध्या जी सरयू तट पर एक खेत में कुटी बना कर रहने लगे और वहीँ उन्हें श्री राम स्वरुप का दर्शन हुआ और सिद्ध हुए | आज वही स्थान अयोध्या में विक्टोरिया पार्क (अब तुलसीदास पार्क) के पीछे “भवहरण कुञ्ज” के नाम से प्रसिद्द है |

मुझे इतना ही पता है की बनादास बनकर और वैराग्य भाव रखकर ही ये जीवन जीना सर्वश्रेष्ठ है क्यों की इस संसार में सभी को इस दारुण दुःख के कालचक्र को पार करना ही पड़ता है | हमें सुखी रहने हेतु सुख दुःख दोनों में समता का भाव रखना होगा | श्री गीता जी का भी सार है “योगः समत्वं उच्यते” |

मेरे बाल मित्र श्री प्रवीण पाण्डेय की असमय मृत्यु पर इस संसार की नश्वरता का भाव करते हुए ईश्वर से प्रार्थना है की इस दारुण दुःख में शोकाकुल परिवार को संबल मिले और उनकी आत्मा को शांति मिले |

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Shivesh Pratap

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