शून्यता की ओर बढ़ते हिन्दू समाज हेतु “धर्मं चर:” का मर्म

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शून्यता की ओर बढ़ते हिन्दू समाज:

भगवान् परशुराम ने केरल की स्थापना की और नम्बूदरी ब्राह्मणों की वंश वेलिका प्रारंभ किया | आज 90 प्रतिशत नम्बूदरी ब्राह्मण इसाई बन चुके हैं और दिन रात हिन्दू धर्म की कब्र खोद रहे हैं | पूरा केरल इसाई हो गया |

अवध के नाम पर युगों तक भगवा लहराने वाला क्षत्रिय सुर्यवंश कब “अवध की शाम” के नाम पर मुगलिया पहचान बन गया पता ही नहीं चला |अवध का गौरवशाली सूर्य “अवध की शाम” में अस्त हो गया |

परित्यक्त आदिवासी और किरातों की सनातन निष्ठा:

1000 वर्षों में जब यह सब हो रहा था तब परित्यक्त आदिवासी और किरात बड़ी श्रद्धा से मणिपुर की पहाड़ियों पर “मणिपुरी” नृत्य से विष्णु की साधना कर रहे थे | कोने में पड़ा हुआ बंगाल भी इसी समय वैष्णव धर्म के संवर्धन को आगे आया और इतना बढ़ गया की उसने उत्तर भारत के हरिद्वार, अवध और प्रयाग को भी पीछे छोड़ दिया | बंगाल के चैतन्य महाप्रभु और महाराष्ट्र के संत ज्ञानेश्वर को कौन भूल सकता है ??

धर्मं चरः का सिंहावलोकन:

धर्मं चरः का सिंहावलोकन करें तो आप पाएंगे की वह वैदिक दर्शन जो कभी भगवान राम सेतुबंध रामेश्वरम में छोड़ आये थे वही दर्शन पुनः आदि शंकराचार्य बनकर वापस काशी और अवध में वापस आता है और विकृत धर्म को शाश्त्रर्थ से प्रक्षालित कर “अद्वैत” की पताका फहरा कर हिन्दू धर्म में प्राणवायु भरता है |

शिव के जिस नृत्य ज्ञान को काशी नहीं सम्हाल पाई उसे भारत नाट्यम के रूप में द्रविड़ों ने तमिलनाड़ु में “भारतनाट्यम” के रूप में सम्हाल के रखा | आज काशी का पोथियों से अधिक लोकप्रिय भारत नाट्यम है जो संसार को शिव से परिचित करा रहा है |

मुगलों के अत्याचारों में शैव प्रतिकार:

जब बंगाल से हिमाचल तक शांतिप्रिय वैष्णव और बौध लोग मुगलों के अत्याचारों से त्राहि त्राहि कर उठे तब गुजरात, महाराष्ट्र, राजस्थान से हरियाणा तक फैले शैवों ने उनसे मोर्चा लिया | जो जाट, गुर्जर और राजपूत मान्यता वाली रियासतें थीं उन्होंने उनका सशक्त प्रतिकार किया | यही कारण है की इस्लाम का जितना प्रभाव उत्तर प्रदेश, विहार, बंगाल में दीखता है उतना शैव संस्कृति प्रधान प्रदेशों में नहीं दीखता | यही कारण है की तुलजा भवानी, एकलिंग और जौहर (जय-हर यानि शिव) के उपासकों ने इस्लाम की नाक में सदा ही दम किया और उन्हें सुकून से बैठने नहीं दिया|

द्रविड़ संस्कृति का वेद संरक्षण:

जिन वेदों को आर्य अपनी थाती मानते हैं आज उनका संवर्धन और संरक्षण “कांची कामकोटी पीठं” के रूप में द्रविड़ संस्कृति कर रही है | जो संस्कृत भाषा पाणिनि के नाम पर आर्यों और उत्तर भारत के गर्व का हिस्सा है उसका संरक्षण और संवर्धन कर्णाटक, तमिलनाडु कर रहे हैं |

अनाथ हिन्दू धर्म के अनाम रक्षक:

आज जब की हिन्दू धर्म अनाथ हो रहा है | सस्कृत पाठशालाएं खाली हैं सिर्फ इस पूर्वाग्रह से की निम्न वर्ग नहीं पढ़ेगा | पांडित्य बेरोजगार ब्राह्मणों की जीविका का साधन मात्र बन गया है | क्षत्रियता का शौर्य बीते समय की बात हो गई ….. ऐसे समय में आत्मावलोकन करना चाहिए की यदि गुर्जर, जाट, भील, किरातों के रूप में फैले हुए वर्ण व्यवस्था के बाहर के लोग हिन्दू धर्म की परिभाषा में शामिल न हुए होते तो क्या 1000 सालों में यह हिन्दू धर्म दुर्दांत आक्रमणों का प्रतिकार कर के इस भगवा धर्म पताका को फहराए रह सकता था ………….शायद नहीं !!!

 

धर्मं चरः के द्वारा जो अमृत उपदेश कृष्ण ने दिया उसकी प्रासंगिकता अभिभूत करती है और जातीय अहंकार से आकंठ डूबे हुए लोग जो हिन्दू धर्म को उनके बलिदान या ज्ञान की थाती मानते हैं उनके क्षणिक ज्ञान पर हास्य महसूस होता है |

आज हर हिन्दू युवा को सत्यनिष्ठ होकर सोचना चाहिए की इस संस्कृति को हम तक पहुचाने में पूरे समाज का एक समांग योगदान है | क्या जातीय , क्षेत्रीय या वर्ण भेद के अहंकार से हम 2050 तक भारत को विश्वगुरु बना पायेंगे ??

“धर्म चर:” का मर्म

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Shivesh Pratap

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