जीवन के श्लोक भाग-3 | Shlokas for Life with Hindi meaning

Spread the love! Please share!!

जीवन के श्लोक भाग-3 

आशा है आप सभी ने भाग 1  एवं भाग 2 पढ़ कर अब यहाँ भाग तीन पढ़ने जा रहे हैं। आशा है की जीवन पर आधारित यह संस्कृत श्लोक आप सभी को बहुत अच्छे लग रहे होंगे।

 

वपुः कुब्जीभूतं गतिरपि तथा यष्टिशरणा
विशीणो दन्तालिः श्रवणविकलं श्रोत्र युगलम् ।
शिरः शुक्लं चक्षुस्तिमिरपटलैरावृतमहो
मनो न निर्लज्यं तदपि विषयेभ्यः स्पृहयति ॥

शरीर को खून  निकल आयी, गति ने लकडी का सहारा ले लिया, दांत गिर गये, दो कान की श्रवणशक्ति कम हुई, बाल सफेद हुए, नजर कमजोर हुई; फिर भी, मेरा निर्लज्ज मन ! विषयों की कामना करता है ।

कान्तिः कीर्ति र्मतिः क्षान्तिः शान्ति र्नीति र्गती रतिः
उक्तिः शक्तिः द्युतिः प्रीतिः प्रतीतिः श्री र्व्यव स्थितिः ।
न पश्यति न जानाति न श्रुणोति न जिघ्रति
न स्पृशति न वा वक्ति भोजने न विना जनः ॥

कांति, कीर्ति, मति, क्षमा, शांति, नीति, गति, रति, उक्ति, शक्ति, प्रकाश, प्रीति, विश्वास, श्री, व्यवस्था (ये सब भोजन बिना व्यर्थ है) !! लोग भोजन के बिना, देखने, जानने, सुनने, सूंघने, स्पर्श करने या बोलने भी शक्तिमान नहीं होता ।

शुभोपदेश दातारो वयोवृद्धा बहुश्रुताः ।
कुशला धर्मशास्त्रेषु पर्युपास्या मुहुर्मुहुः ॥

शुभ उपदेश देनेवाले, वयोवृद्ध, ज्ञानी, धर्मशास्त्र में कुशल – ऐसे लोगों की सदैव सेवा करनी चाहिए ।

आपत्सु मित्रं जानीयात् युद्धे शूरमृणे शुचिम् ।
भार्यां क्षीणेषु वित्तेषु व्यसनेषु च बान्धवान् ॥

सच्चे मित्र की कसौटी आपत्ति में, शूर की युद्ध में, पावित्र्य की ऋण में, पत्नी की वित्त जाने पर, और संबंधीयों की कसौटी व्यसन में होती है ।

आत्मनो मुखदोषेण बध्यन्ते शुकसारिकाः ।
बकास्तत्र न बध्यन्ते मौनं सर्वार्थ साधनम् ॥

स्वयं के मुख-दोष से तोता और सारिका शिकार हो जाते हैं; पर बगुले नहीं पकडे जाते । इस लिए, मौन सर्व अर्थ साधने वाला है ।

वनानि दहतो वह्नेः सखा भवति मारुतः ।
स एव दीपनाशाय कृशे कस्यास्ति सौहृदम् ॥

जो पवन, वन जलानेवाले अग्नि से मैत्री करता है, वही पवन, दिये को बुझा देता है ! दुर्बल से मैत्री कोन करे ?

मज्जुलापि न वाग्भाति प्रोक्तानवसरे जनैः ।
शृङ्गारः शोभते नैव सङ्गारे भूरिवर्णितः ॥

लोगों द्वारा अयोग्य समय पर बोली हुई, मधुर वाणी भी शोभा नहीं देती । युद्ध के समय पर शृंगार का वर्णन शोभा नहीं देता ।

Shlokas for Life with Hindi meaning

कटुकं वा मधुरं वा प्रस्तुत वाक्यं मनोहारि ।
वामे गर्दनादश्रित्तप्रीत्यै प्रयाणेषु ॥

योग्य समय पर बोला हुआ, चाहे कठोर हो या मधुर हो वह मनोहर लगता है; (प्रिय जगह) प्रयाण करते वक्त, दांयी ओर से सुनायी देनेवाली गधे की आवाज़ भी चित्त को खुश करती है ।

अतिपरिचयादवज्ञा संतत गमनादनादरो भवति ।
मलये भिल्लपुरन्ध्री चन्दनतरु काष्ठ मिन्धनं कुरुते ॥

अति परिचय से उपेक्षा, और बार बार जाने से अनादर होता है । मलय पर्वत पर भील स्त्री चंदन के लकडे को इंधन में उपयोग करती है !

अतिपरिचयादवज्ञा संतत गमनादनादरो भवति ।
लोकः प्रयागवासी कूपे स्नानं समाचरति ॥

अति परिचय से उपेक्षा, और बार बार जाने से अनादर होता है । प्रयागवासी लोग कूए पर स्नान करते हैं !

पात्रविशेषे न्यस्तं गुणान्तरं व्रजाति शिल्पमाधातुः ।
जलमिव समुद्रशुक्तौ मुक्ताफलतां पयोदस्य ॥

ब्रह्मा द्वारा विशेष पात्र में रखी गयी चीज़ नये गुण प्राप्त करती है; जैसे कि बादल का पानी समंदर के छीप में मोती बनता है ।

तिथिपर्वोत्सवाः सर्वे त्यक्ता येन महात्मना ।
अतिथिं तं विजानीयात् शेषमभ्यागतं विदुः ॥

तिथि, पर्व, उत्सव, ये सब जो ध्यान में लेता नहीं, वही अतिथि है, दूसरे सब तो अभ्यागत कहलाते हैं ।

कुस्थानस्य प्रवेशेन गुणवानपि पीडयते ।
वैश्वानरोऽपि लोहस्थः कारुकैरभिहन्यते ॥

कुस्थान में प्रवेश करने से गुणवान भी पीडित होता है; लोहे के साथ रहा हुआ अग्नि भी हथौडे से पीटा जाता है ।

कष्टं खलु मूर्खत्वं कष्टं खलु यौवनेऽपि दारिद्र्यम् ।
कष्टादपि कष्टतरं परगृहवासः परान्नंच ॥

मूर्खत्व कष्टदायक है, वैसे हि युवानी में दारिद्र कष्टदायक है; पर सब से कष्टदायक तो पराये घर रहना और परान्न खाने में है ।

विना कार्येण ये मूढा गच्छन्ति परमन्दिरम् ।
अवश्यं लघुतां यान्ति कृष्णपक्षे यथा शशी ॥

जो लोग बिना कारण दूसरों के घर जाते हैं, वे अवश्य ही कृष्ण पक्ष के चंद्र की तरह लघुता को प्राप्त होते हैं ।

अकिञ्चन्यादतिपरिचयाज्जाययोपेक्षमाणः
भूपालानामननु सरणाद् बिभ्य देवाखिलेभ्यः ।
गेहे तिष्ठन् कु मतिरलसः कू पकर्मैः सधर्मा
किं जानीते भुवन चरितं किं सुखं चोपभुङ्कते ॥

गरीबी की वजह से, अति परिचय के कारण, पत्नी से उपेक्षित, राजाज्ञा न मानने पर सब से गभराया हुआ, घर में पडे रहेनेवाला, आलसी, मतिहीन, कूए को विश्व समजनेवाला इन्सान दुनिया में क्या चलता है वह क्या जानेगा ? या क्या सुखोपभोग ले पायेगा ?

भ्रमन् सम्पूज्यते राजा भ्रमन् सम्पूज्यते द्विजः ।
भ्रमन् सम्पूज्यते योगी स्त्री भ्रमन्ती विनश्यति ॥

घूमनेवाला राजा, घूमनेवाला ब्राह्मण, और घूमनेवाला योगी पूजे जाते हैं; पर घूमनेवाली स्त्री नष्ट होती है ।

शोकं मा कुरु कुक्कुर सत्वेष्वहमधम इति मुधा साधो ।
कष्टादपि कष्टतरं दृष्टा श्वानं कृतघ्ननामानम् ॥

हे भाई कुत्ते ! कृतघ्न नाम के अत्यंत दुःखी श्वान को देखकर, “मैं सब प्राणियों में अधम हूँ” ऐसा शोक मत कर !

विश्वास प्रतिपन्नानां वञ्चने का विदग्धता ।
अङ्कमारुह्य सुप्तानां हन्तुः किं नाम पौरुषम् ॥

विश्वास से पास आये हुए को दगा देने में कोई होशियारी है ? गोद में सोये हुए को मारने में कोई पौरुष है ?

वेपथुर्मलिनं वक्त्रं दीना वाग्गद्गदः स्वरः ।
मरणे यानि चिह्नानि तानि चिह्नानि याचके ॥

ध्रूजारी, मलिन मुख, दीन वाणी, गद्गद स्वर – ये जैसे मरण के लक्षण हैं, वैसे हि याचक के भी लक्षण हैं ।

ददाति प्रतिगृह्णाति गृह्यामाख्याति पृच्छति ।
भुङ्क्ते भोजयते चैव षड् विधं प्रीति लक्षणम् ॥

देती है, स्वीकारती है, गुप्त बात बताती है, पूछती है, खाती है, (और) खिलाती है – ये छे प्रीति के लक्षण हैं ।

दग्धं खाण्डवमर्जुनेन बलिना दिव्यैर्द्रुमैर्भूषितम् ।
दग्धा वायुसुतेन रावण-पुरी लंका पुनःस्वर्णभूः ॥
दग्धः पंचशरः पिनाक-पतिना तेनाप्ययुक्तं कृतं ।
दारिद्य्रं जनतापकारक-मिदं केनापि दग्धं न हि ॥

महाबली अर्जुन ने दिव्य द्रुमवृक्षों से शोभायमान, खाण्डववन को जलाया; वायुपुत्र हनुमान ने रावण की सोने की लंका को जलाया; पिनाक-पिता शिवजी ने कामदेव मदन को जलाया, वह भी अयुक्त ही था, (क्यों कि) जनमात्र को पीडा देनेवाले दारिद्र्य को किसी ने भी नहीं जलाया ।

मुखं पद्मदलाकारं वाचा चन्दनशीतला ।
हृदयं क्रोध संयुक्तं त्रिविधं धूर्तलक्षणम् ॥

मुख पद्मदल जैसा, वाणी चंदन जैसी शीतल, परंतु हृदय क्रोधयुक्त, ये तीन धूर्त के लक्षण हैं ।

पापान्निवारयति योजयते हिताय गुह्यं च गूहति गुणान् प्रकटीकरोति ।
आपद्गतं च न जहाति ददाति काले सन्मित्रलक्षणमिदं प्रवदन्ति सन्तः ॥

जो पाप से रोकता है, हित में जोडता है, गुप्त बात गुप्त रखता है, गुणों को प्रकट करता है, आपत्ति आने पर छोडता नहीं, समय आने पर (जो आवश्यक हो) देता है – संत पुरुष इन्हीं को सन्मित्र के लक्षण कहते हैं ।

सीदन्ति सन्तो विलसन्त्यसन्तः पुत्रा म्रियन्ते जनकश्चिरायुः ।
परेषु मैत्री स्वजनेषु वैरम् पश्यन्तु लोकाः ! कलिकौतुकानि ॥

सज्जन व्यग्र रहते हैं और दुर्जन विलास करते हैं; पुत्र मर जाते हैं, और पिता दीर्घायु होते हैं; परायों से दोस्ती और स्वजनों से वैर पाया जाता है; अरे लोगों ! कलियुग के ऐसे कौतुक तो देखो !

स्थानं प्रधानं खलु योग्यतायाः स्थाने स्थितः कापुरुषोऽपि शूरः ।
जानामि नागेन्द्र ! तव प्रभावम् कंठे स्थितो गर्जसि शंकरस्य ॥

योग्यता के लिए (व्यक्ति से) स्थान ज़ादा महत्त्वपूर्ण है, (क्यों कि) योग्य स्थान पर बैठा हुआ स्त्रैण इन्सान भी शूर लगता है । हे नागेन्द्र ! आपका प्रभाव मैं जानता हूँ, शिवजी के गले में हो तब तक गर्जना करते हो !

आत्मनो मुखदोषेण बध्यन्ते शुकसारिकाः ।
बकास्तत्र न बध्यन्ते मौनं सर्वार्थसाधनम् ॥

तोता और मैना अपनी मधुर आवाज की वजह से (पिंजरे में) बंध जाते हैं, पर बगुला ऐसे बंधता नहीं (क्यों कि वह बोलता नहीं) । मौन ही सर्व अर्थ सिद्ध करने का साधन है ।

वासः प्रधानं खलु योग्यतायाः बासोविहीनं विजहाति लक्ष्मीः ।
पीतांबरं वीक्ष्य ददौ तनूजाम् दिगंबरं वीक्ष्य विषं पयोधिः ॥

बडप्पन (पाने) का साधन सच में कपडे ही हैं, बगैर (अच्छे) कपडे के व्यक्ति को लक्ष्मी छोडकर चली जाती है । पीतांबर पहेने हुए विष्णु को सागर ने अपनी बेटी लक्ष्मी दे दी, और दिगंबर शिवजी को विष दे दिया !

जीवन पर संस्कृत श्लोक भाग-4

Facebook Comments

Spread the love! Please share!!
Shweta Pratap

I am a defense geek

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is the copyright of Shivesh Pratap.